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धर्मामृत (अनगार )
अथेदानीमासन्नभव्यानामतिदुर्लभत्वेऽपि न देशना निष्फला इति तां प्रतिवक्तुमुत्सहतेपश्यन् संसृतिनाटकं स्फुटरसप्राग्भार किमरितं,
'स्वस्थश्चर्वति निर्वृतः सुखसुधामात्यन्तिकोमित्यरम् ।
सन्तः प्रतियन्ति तेऽद्य विरला देश्यं तथापि क्वचित्
काले कोsपि हितं श्रयेदिति सदोत्पाद्यापि शुश्रूषुताम् ||१२||
पश्यन् — निर्विकल्पमनुभवन् । नाटकं -- अभिनेयकाव्यम् । स्फुटाः - विभावानुभावव्यभिचारिभिरभिव्यज्यमानाः, रसाः - शृङ्गारादयः । तत्सामान्यलक्षणं यथा—
कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ॥ विभावा अनुभावास्तत्कथ्यन्ते व्यभिचारिणः । व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥
इन तीन प्रकार के मुमुक्षुओं में से अन्तिममें तटस्थ भावना दिखानेके लिए ग्रन्थकारने उक्त कथन किया है । उसका सार यह है कि घटमें रखा हुआ दीपक प्रकाशमान हो या न हो, उससे लोगों में न हर्ष होता है और न विषाद । वह हेय और उपादेय पदार्थोंका प्रकाशक न होने से उपेक्षाके योग्य माना जाता है । किन्तु जो स्वार्थ की तरह ही परार्थ में लीन रहते हैं वे सदा प्रकाशमान रहें । इसका आशय यह है कि प्रभावशाली वक्ताके वचनोंपर विश्वास करके लोग उसकी वाणीसे प्रेरणा लेकर बिना किसी प्रकारकी शंकाके परलोकसम्बन्धी धार्मिक कृत्यों में प्रवृत्ति करते हैं अतः परोपकारी पुरुषसे बड़ा लोकोपकार होता है । इसलिए परोपकारी प्रवक्ता सदा अभिनन्दनीय हैं ।
यद्यपि इस कालमें निकट भव्य जीव अति दुर्लभ हैं तथापि उपदेश करना निष्फल नहीं होता, इसलिए उपदेशके प्रति वक्ताको उत्साहित करते हैं
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'कर्म से रहित अपने शुद्ध स्वरूपमें विराजमान मुक्तात्मा व्यक्त स्थायी भावों और रसोंके समूहसे नानारूप हुए संसार रूपी नाटकको देखते हुए - निर्विकल्प रूपसे अनुभव करते हुए अनन्तकाल तक सुखरूपी अमृतका आस्वादन करते हैं', ऐसा उपदेश सुनकर जो तत्काल उसपर श्रद्धा कर लेते हैं कि ऐसा ही है, ऐसे निकट भव्य जीव इस काल में बहुत विरले हैं । तथापि किसी भी समय कोई भी भव्यजीव अपने हित में लग सकता है इस भावनासे श्रवण करनेकी इच्छाको उत्पन्न करके भी सदा उपदेश करना चाहिए || १२ ||
विशेषार्थ — यह संसार एक नाटककी तरह है। नाटक दर्शकोंके लिए बड़ा आनन्ददायक होता है । उसमें विभाव अनुभाव और व्यभिचारी भावोंके संयोगसे रति आदि स्थायी भावोंकी पुष्टि होती है । पुष्ट हुए उन्हीं स्थायी भावोंको रस कहते हैं । मनके द्वारा जिनका आस्वादन किया जाता है उन्हें रस कहते हैं । वे शृङ्गारादिके भेदसे अनेक प्रकारके होते हैं । उनका सामान्य लक्षण इस प्रकार है - " रति आदिके कारण रूप, कार्य रूप और सहकारीरूप जितने भाव हैं उन्हें लोकमें स्थायी भाव कहते हैं । यदि इनका नाटक और काव्यमें प्रयोग किया जाये तो उन्हें विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव कहते हैं । उन विभाव आदिके द्वारा व्यक्त होनेवाले स्थायी भावको रस कहते हैं ।" तथा — विभाव, अनुभाव, सात्त्विक और व्यभिचारी भावोंके द्वारा साधे जानेवाले स्थायी भावको रस कहते
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