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धर्मामृत ( अनगार) अथ भूमिशयनविधानमाह__ अनुत्तानोऽनवाङ् स्वयाद भूदेशेऽसंस्तृते स्वयम् ।
स्वमात्रे संस्तृतेऽल्पं वा तुणादिशयनेऽपि वा ॥११॥ अनवाङ-अनधोमुखः अन्यथा स्वप्नदर्शनरतश्च्यवनादिदोषाम्नायात् । स्वप्यात्-दण्डवद् धनुर्वद्वा एकपाद्येन शयीतेत्यर्थः । अल्पं-गृहस्थादियोग्यं प्रच्छादनरहित इत्यर्थः । तृणादि-आदिशब्देन काष्ठ६ शिलादिशयने । तत्रापि भूमिप्रदेशवदसंस्तुतेऽल्पसंस्तुते वा ।
उक्तं च
'फासुयभूमिपदेसे अप्पमसंथारिदम्हि पच्छण्णे ।
दंडधणुव्व सेज्ज खिदिसयणं एयपासेण ॥' [ मूलाचार गा. ३२ ] ॥११॥ अथ स्थितिभोजनविधिकालावाह
तिस्रोऽपास्याद्यन्तनाडीसंध्येऽन्ह्यद्यात् स्थितः सकृत् ।
मुहूर्तमेकं द्वौ त्रीन्वा स्वहस्तेनानपाश्रयः ॥१२॥ अनपाश्रयः-भित्तिस्तम्भाधवष्टम्भरहितः । उक्तं च
'उदयत्थमणे काले णालीतियवज्झियम्हि मज्झम्हि ।
एकम्हि दुय तिए वा मुहुत्तकालयभत्तं तु ॥ प्रकट करनेवाले बाह्य चिह्नोंको स्वीकार करनेसे जब गार्हस्थ्य अवस्थाको दूर कर दिया जाता है तब व्रतोंको धारण करनेसे कषायको दूर किया जाता है। अर्थात् गृहस्थ अवस्थामें ही रहते हुए महावतका धारण नहीं हो सकता । अतः बाह्य लिंग पूर्वक व्रत धारणसे ही आत्माकी विशुद्धि हो सकती है ॥९॥
आगे भूमिपर सोने की विधि कहते हैं
साधुको तृण आदिके आच्छादनसे रहित भूमिप्रदेशमें अथवा अपने द्वारा मामूली-सी आच्छादित भूमिमें, जिसका परिमाण अपने शरीरके बराबर हो, अथवा तृण आदिकी शय्यापर, न ऊपरको मुख करके और न नीचेको मुख करके सोना चाहिए ॥९१॥
विशेषार्थ-साधुके अट्ठाईस मूल गुणोंमें एक भूमिशयन मूल गुण है उसीका स्वरूप यहाँ बतलाया है। भूमि तृण आदिसे ढकी हुई न हो, या शयन करनेवालेने स्वयं अपने हाथसे भूमिपर मामूली-सी घास आदि डाल ली हो और वह भी अपने शरीर प्रमाण भूमिमें ही या तृण, काठ और पत्थरकी बनी शय्यापर साधुको सोना चाहिए। किन्तु न तो ऊपरको मुख करके सीधा सोना चाहिए और न नीचेको मुख करके एकदम पेटके बल सोना चाहिए; क्योंकि इस तरह सोनेसे स्वप्नदर्शन तथा वीर्यपात आदि दोषोंकी सम्भावना रहती है। अतः एक करवटसे या तो दण्डकी तरह सीधा या धनुषकी तरह टेढ़ा मोना चाहिए। मूलाचार (गाथा ३२) में भी ऐसा ही विधान है । उसे करवट नहीं बदलना चाहिए ॥११॥
खड़े होकर भोजन करनेकी विधि और कालका प्रमाण कहते हैं
दिनके आदि और अन्तकी तीन-तीन घड़ी काल छोड़कर, दिनके मध्यमें खड़े होकर और भीत, स्तम्भ आदिका सहारा न लेकर एक बार एक, दो या तीन मुहूर्त तक अपने हाथसे भोजन करना चाहिए ॥१२॥
विशेषार्थ-साधुके अट्ठाईस मूलगुणोंमें एक मूलगुण स्थिति भोजन है और एक मूल गुण एक भक्त है । यहाँ इन दोनोंका स्वरूप मिलाकर कहा है। किन्तु मूलाचारमें दोनोंका
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