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नवम अध्याय
अथाचारवत्त्वादिस्वरूपोद्देशार्थमाह
आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः ।
बायापायविगुत्पीडोऽपरिस्रावी सुखावहः ॥७७॥ अथाचारपदादिलक्षणनिर्णयार्थ श्लोकद्वयमाह
पश्चाचारकृदाचारी स्यादाधारी श्रुतोधुरः। व्यवहारपटुस्तद्वान् परिचारी प्रकारकः ।।७८॥ गुणदोषप्रवक्ताऽऽयापायदिग् दोषवामकः ।
उत्पीलको रहोऽभत्ताऽस्रावी निर्वापकोऽष्टमः ॥७९॥ पश्चाचारकृत्-पञ्चानां ज्ञानाद्याचाराणामाचरिता आचारयिता उपदेष्टा च । उक्तं च___ 'आचारं पश्चविधं चरति च चारयति यो निरतिचारम ।
उपदिशति सदाचारं भवति स आचारवान् सूरिः ।।' [ श्रुतोद्धरः-अनन्यसामान्यश्रुतज्ञानसंपन्नः । उक्तं च
'नवदशचतुर्दशानां पूर्वाणां वेदिता मतिसमुद्रः।
कल्पव्यवहारधरः स भवत्याधारवान्नाम ॥ [ ] आगे आचारवत्त्व आदि आठ गुणोंका निर्देश करते हैं
आचार्य आचारी, आधारी, व्यवहारी, प्रकारक, आय और अपायदर्शी, उत्पीडक, अपरिस्रावी और सुखकारी होता है ॥७७॥
आगे दो श्लोकोंके द्वारा इन आचारी आदिका स्वरूप कहते हैं
जो पाँच ज्ञानादि आचारोंका स्वयं आचरण करता है दूसरोंसे आचरण कराता है और उनका उपदेश देता है उसे आचारी या आचार्यवान् कहते हैं। जो असाधारण श्रतज्ञानसे सम्पन्न हो उसे आधारी कहते हैं। जो व्यवहारपटु हो, अर्थात् प्रायश्चित्तका ज्ञाता हो, जिसने बहुत बार प्रायश्चित्त देते हुए देखा हो और स्वयं भी उसका प्रयोग किया हो, उसे व्यवहारी कहते हैं। जो क्षपककी सेवा करता है उसे प्रकारक कहते हैं। जो आलोचनाके लिए उद्यत क्षपकके गुणों और दोषोंका प्रकाशक हो उसे आयापायदिक् कहते हैं। जो व्रत आदिके गूढ़ अतिचारोंको बाहर निकालने में समर्थ है उसे उत्पीलक कहते हैं । जो एकान्तमें प्रकाशित दोषको प्रकट नहीं करता उसे अपरिस्रावी कहते हैं। जो भूख-प्यास आदिके दुःखोंको शान्त करता हो उसे सुखकारी कहते हैं। इन आठ गुणोंसे युक्त आचार्य होता है ॥७८-७९॥
विशेषार्थ-आचार्य शब्द आचारसे ही बना है। और आचार हैं पाँच-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। जो इन पाँच आचारोंका स्वयं पालन करता है, दूसरोंसे पालन कराता है और उनका उपदेश देता है उसे आचार्य कहते हैं। भगवती आराधना और मूलाचारका वही आशय है जो ऊपर कहा है। दूसरा गुण है आधारवत्त्व । उसका आगमिक स्वरूप इस प्रकार कहा है-जो चौदह पूर्व या दस पूर्व या
१. चोद्दस-दस-णवपुव्वी महामदी सायरोव्व गंभीरो।
कप्पववहारधारी होदि ह आधारवं णाम ।।-भ. आरा., ४२८ गा.।
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