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________________ धर्मामृत ( अनगार) अथ स्वाध्यायकरणेऽशक्तस्य च देववन्दनाकरणे विधानमाह सप्रतिलेखममुकुलितवत्सोत्सङ्गितकरः सपर्यंङ्कः। कुर्यादेकानमनाः स्वाध्यायं वन्दनां पुनरशक्त्या ॥४३॥ वत्सोत्सङ्गितो-वक्षोमध्यस्थापितो। सपयंङ्कः उपलक्षणाद् वीरासनादियुक्तोऽपि । उक्तं च 'पलियंकणिसेज्जगदो पडिलेहियय अंजलीकदपणामो। सुत्तत्थजोगजुत्तो पढिदव्वो आदसत्तीए ॥' [ मूलाचार गा. २८१ ] अशक्त्या-उद्भो यदि वन्दितुं न शक्नुयादित्यर्थः ।।४३।। अथ प्रतिक्रमणे योगग्रहणे तन्मोक्षणे च कालविशेषो व्यवहारादेव पूर्वोक्तः प्रतिपत्तव्यः । धर्मकार्या९ दिव्यासङ्गेन ततोऽन्यदापि तद्विधाने दोषाभावादित्युपदेशार्थमाह अल्प और सात्त्विक भोजन, क्योंकि भरपेट पौष्टिक भोजन करनेसे नींद अधिक सताती है । श्लोकमें 'जिताशनः' पाठ है तालव्य 'श' के स्थानमें दन्ती स करनेसे अर्थ होता है पर्यक आदि आसनसे बैठनेसे खेद न होना। अर्थात् रात्रिमें आसन लगाकर बैठनेसे निद्राको जीता जा सकता है । थककर लेटने पर तो निद्रा आये बिना नहीं रह सकती। कहा भी है'हे मुनि! तू निद्राको जीतने के लिए ज्ञानादिकी आराधनामें प्रीति, संसारके दुःखसे भय और पूर्व संचित पापकर्मों का शोक सदा किया कर ॥४२॥ जो स्वाध्याय करनेमें असमर्थ हैं उनके लिए देववन्दनाका विधान करते हैं पीछी सहित दोनों हाथों को अंजली बद्ध करके और छातीके मध्यमें स्थापित करके पर्यकासन या वीरासन आदिसे एकाग्रमन होकर स्वाध्याय करना चाहिए। यदि स्वाध्याय करने में असमर्थ हो तो उसी प्रकारसे वन्दना करनी चाहिए ॥४३॥ विशेषार्थ-मूलाचारमें स्वाध्यायकी विधि इस प्रकार कही है-'पर्यक या वीर आसनसे बैठकर चक्षुसे पुस्तकका, पीछीसे भूमिका और शुद्ध जलसे हाथ-पैरका सम्मार्जन करके दोनों हाथोंको मुकुलित करके प्रणाम करे। और सूत्र तथा अर्थके योगसे युक्त अपनी शक्तिसे स्वाध्याय करे । इस प्रकार साधुको स्वाध्याय करना आवश्यक है; क्योंकि स्वाध्याय भी दूसरी समाधि है। कहा है-मनको ज्ञानके अधीन, अपने शरीरको विनयसे युक्त, वचनको पाठके अधीन और इन्द्रियोंको नियन्त्रित करके, जिन वचनों में उपयोग लगाकर स्वाध्याय करनेवाला आत्मा कोका क्षय करता है, इस प्रकार यह स्वाध्याय दूसरी समाधि है। किन्तु जो मनि स्वाध्याय करने में असमर्थ होता है वह उसी विधिसे देववन्दना करता है। यद्यपि. देववन्दना खड़े होकर की जाती है किन्तु अशक्त होनेसे बैठकर कर सकता है ॥४३॥ . प्रतिक्रमणके द्वारा योगके ग्रहण और त्यागमें पहले कहा हआ काल विशेष व्यवहारके अनुसार ही जानना । किन्तु धर्मकथा आदिमें लग जानेसे यदि उस कालमें योगधारण और प्रतिक्रमण न करके अन्यकालमें करता है तो उसमें कोई दोष नहीं है, यह कहते हैं १. 'मनो बोधाधीनं विनयविनियुक्तं निजवपु र्वचः पाठायत्तं करणगणमाधाय नियतम् । दधानः स्वाध्यायं कृतपरिणतिर्जेनवचने, करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यन्तरमिदम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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