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धर्मामृत ( अनगार) द्रव्यादिशुद्धितः-द्रव्यादिशुद्धया ह्यधीतं शास्त्रं कर्मक्षयाय स्यादन्यथा कर्मबन्धायेति भावः । अत्रायमागमः
'दिसिदाह उक्कपडणं विज्जुवउक्काऽसणिदधणुयं च । दुग्गंध संज्झदुद्दिण चंदगहा सूरराहु जुद्धं च ॥ कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्जं च । इच्चेयमाइ बहुगा सज्झाए वज्जिदा दोसा ॥ रुधिरादिपूयमंसं दवे खेत्ते सदहत्थपरिमाणं ।
कोधादि संकिलेसा भावविसोही पढणकाले ॥ [ मूलाचार गा. २७४-२७६ ] दव्वे-आत्मशरीरे परशरीरे च । सदहत्थपरिमाणे-चतसृषु दिक्षु हस्तशतचतुष्टयमात्रेण रुधिरादीनि वानीत्यर्थः ॥४॥
विशेषार्थ-मूलाचारमें स्वाध्यायके कालादिका वर्णन इस प्रकार किया है-किसी उत्पातसे जब दिशाएँ आगके समान लालिमाको लिये हुए हों, आकाशसे उल्कापात हुआ हो, बिजली चमकती हो, वज्रपात हो, ओले गिरते हों, इन्द्रधनुष उगा हो, दुर्गन्ध फैली हो, सन्ध्या हो, दुर्दिन-वर्षा होती हो, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण हो, कलह होता हो, भूचाल हो, मेघ गरजते हों, इत्यादि बहुत-से दोषोंमें स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। इस तरह कालशुद्धि होनेपर जो शास्त्र स्वाध्यायके योग्य हैं वे इस प्रकार हैं-सर्वज्ञके मुखसे अर्थ ग्रहण करके गौतम आदि गणधरोंके द्वारा रचित द्वादशांगको, प्रत्येक बुद्ध श्रुतकेवली तथा अभिन्न दस पूर्वियोंके द्वारा रचितको सूत्र कहते हैं। संयमी स्त्री-पुरुषोंको अर्थात् मुनि और आर्यिकाओंको अस्वाध्यायकालमें नहीं पढ़ना चाहिए । इन सूत्र ग्रन्थोंके सिवाय जो अन्य आचार्यरचित ग्रन्थ हैं उन्हें अस्वाध्यायकालमें भी पढ़ सकते हैं। जैसे भगवती आराधना, जिसमें चारों आराधनाओंका वर्णन है, सतरह प्रकारके मरणका कथन करनेवा संग्रहरूप पंचसंग्रह आदि ग्रन्थ, स्तुतिरूप देवागम आदि स्तोत्र, आहार आदिका या सावद्य द्रव्योंके त्यागका कथन करनेवाले ग्रन्थ, सामायिक आदि छह आवश्यकोंके प्रतिपादक ग्रन्थ, धर्मकथावाले पुराण चरित आदि ग्रन्थ, या कार्तिकेयानुप्रेक्षा-जैसे ग्रन्थोंको अस्वाध्यायकालमें भी पढ़ सकते हैं। श्वेताम्बरीय आगम, व्यवहारसूत्र, स्थानांग आदिमें भी स्वाध्याय और अस्वाध्यायके ये ही नियम विस्तारसे बतलाये हैं जिन्हें अभिधान राजेन्द्रके सज्झाय और असज्झाय शब्दोंमें देखा जा सकता है । यथा-'णो कप्पइ णिगंथाण वा णिग्गंथीण वा च उहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए तं जहा-पढमाए, पच्छिमाए, मज्झण्हे अद्धरत्तो । कप्पई ' णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चउक्कालं सज्झायं करेत्तए-पुत्वण्हे अवरण्हे पओसे पच्चूसे ।-स्था. ४ ठ. २ उ.। अर्थात् निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियोंको चारों सन्ध्याओं में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए-प्रथम, अन्तिम, मध्याह्न और अर्धरात्रि । तथा निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियोंको चार कालमें स्वाध्याय करना चाहिए-पूर्वाह्न, अपराह्म, प्रदोष और प्रत्यूष (प्रभात )।
इसी तरह स्थानांग १० में वे दस अवस्थाएँ बतलायी हैं जिनमें स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । जैसे चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, उल्कापात, मेघगर्जन, बिजलीकी चमक आदिके समय । स्तुति, धर्मकथा आदिको सन्ध्याकालमें भी पढ़ सकते हैं। उत्तराध्ययन ( २६।१२ ) में कहा है कि दिनके चार भाग करके प्रथममें स्वाध्याय, दूसरेमें ध्यान, तीसरेमें भिक्षाचर्या और
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