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________________ धर्मामृत ( अनगार ) करता है वह अगारी है और जिसके घरबार नहीं है वह अनगार है। तत्त्वार्थसूत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धि में इसपर शंका की गयी है कि इस व्याख्याके अनुसार तो विपरीतता भी प्राप्त हो सकती है। कोई साधु किसी शून्य घर या देवालयमें ठहरा हो तो वह अगारी कहलायेगा और किसी घरेलू परिस्थितिके कारण कोई गृहस्थ घर त्यागकर वनमें जा बसे तो वह अनगार कहलायेगा। इसके उत्तरमें कहा गया है कि यहाँ अगारसे भावागार लिया गया है। मोहवश घरसे जिसका परिणाम नहीं हटा है वह वनमें रहते हुए भी अगारी है और जिसका परिणाम हट गया है वह शून्यगृह आदिमें ठहरनेपर भी अनगार है। उसी अनगारके धर्मका वर्णन अनगार धर्मामृतमें है। अनगार पाँच महाव्रतोंका पालक होता है। वह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका पूर्ण रूपसे पालन करता है । दिगम्बर परम्पराके अनगार अपने पास केवल दो उपकरण रखते हैं-एक जीव रक्षाके लिए मयूरके परोंसे निर्मित पिच्छिका और दूसरा शौचादिके लिए कमण्डलु । शरीरसे बिलकुल नग्न रहते हैं और श्रावकके घरपर ही दिन में एक बार खड़े होकर हाथोंकी अंजुलिको पात्रका रूप देकर भोजन करते है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराके अनगार पाँच महाव्रतोंका पालन करते हुए भी वस्त्र, पात्र रखते हैं। अनगारोंकी इस प्रवृत्ति भेदके कारण ही जैन सम्प्रदाय दो भागों में विभाजित हो गया और वे विभाग दिगम्बर और श्वेताम्बर कहलाये । वैसे दोनों ही परम्पराओंके अनगारोंके अन्य नियमादि प्रायः समान ही हैं। किन्तु दिगम्बर अनगारों की चर्या बहुत कठोर है और शरीरसे भी निस्पृह व्यक्ति ही उसका पालन कर सकता है। जैन अनगारका वर्णन करते हुए कहा है येषां भूषणमङ्गसंगतरजः स्थानं शिलायास्तलं शय्या शर्करिला मही सुविहिता गेहं गुहा द्वीपिनाम् । आत्मात्मीयविकल्पबीतमतयस्त्रुट्यत्तमोग्रन्ययः ते नो ज्ञानधना मनांसि पुनतां मुक्तिस्पृहा निस्पृहाः ।। आत्मानु. २५९ । अर्थात् शरीरमें लगी धूलि ही जिनका भूषण है, स्थान शिलातल है, शय्या कंकरीली भूमि है, प्राकृत रूपसे निर्मित सिंहोंकी गुफा जिनका घर है; जो मैं और मेरे की विकल्प बुद्धिसे अर्थात् ममत्वभावसे रहित हैं, जिनकी अज्ञानरूपी गाँठ खुल गयी है, जो केवल मुक्तिकी ही स्पृहा रखते हैं अन्यत्र सर्वत्र निस्पृह है, वे ज्ञानरूप धनसे सम्पन्न मुनीश्वर हमारे मनको पवित्र करें। भर्तृहरिने भी अपने वैराग्य शतकमें उनका गुणगान करते हुए कहा है पाणि: पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्नं विस्तीर्ण वस्त्रमाशादशकमचपलं तल्पमस्वल्पमुर्वी ।। येषां निःसंगताङ्गीकरणपरिणतस्वान्तसंतोषिणस्ते धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति ।। -वैराग्यशतक, ९९ । __ अर्थात् हाथ ही जिनका पवित्र पात्र है, भ्रमणसे प्राप्त भिक्षा अविनाशी भोजन है, दस दिशाएं ही विस्तीर्ण वस्त्र है, महान निश्चल भूमि ही शय्या है, निःसंगताको स्वीकार करनेसे परिपक्व हुए मनसे सन्तुष्ट तथा समस्त दीनताको दूर भगानेवाले वे सौभाग्यशाली कर्मोंका विनाश करते हैं। कर्मबन्धनके विनाशके बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती और कर्मबन्धनका विनाश कर्मबन्धनके कारणोंसे बचाव हुए बिना नहीं होता। इसीसे मुक्तिके लिए कठोर मार्ग अपनाना होता है। व्रत, तप, संयम ये सब मनुष्यकी वैषयिक प्रवृत्तिको नियन्त्रित करने के लिए है। इनके बिना आत्मसाधना सम्भव नहीं है जबकि आत्मसाधना करने का नाम ही साधुता है। इसका मतलब यह नहीं है कि शरीरको कष्ट देनेसे ही मुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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