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अष्टम अध्याय
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हठात् कर्मविधापनम् ॥१०८ ॥ उपध्याप्त्या – उपकरणादिलाभेन । हीनं मात्राहीनत्वात् । चूला चिरेण - वन्दनां स्तोककालेन कृत्वा तच्चूलिकाभूतस्यालोचनादेर्महता कालेन करणम् ॥१०९॥ मूकः - मूकाख्यो दोषः ॥११०॥ गीत्या - पञ्चमादिस्वरेण । इति प्रकारार्थोऽयम् । तेनैवं प्रकाराः क्रियाकाण्डाद्युक्ताः । शिरोनाI मोनाममृर्वोपरिकरभ्रमणगुर्वादिरग्रतो भूत्वा पाठोच्चारणादयोऽपि त्याज्याः ॥ १११ ॥
अथैकादशभिः श्लोकैः कायोत्सर्गदोषान् द्वात्रिंशतं व्याचष्टेकायोत्सर्गमलोऽस्त्येक मुत्क्षिप्याङ्घ्रि वराश्ववत् । तिष्ठतोऽश्वो मरुतलतावच्चलतो लता ॥ ११२ ॥ स्तम्भः स्तम्भाद्यवष्टभ्य पट्टकः पट्टकादिकम् । आरुह्य मालो मालादि मूर्ध्नालम्ब्योपरि स्थितिः ॥ ११३ ॥ शृङ्खलाबद्धवत् पादौ कृत्वा शृङ्खलितं स्थितिः । गुह्यं कराभ्यामावृत्य शवरीवच्छवर्यपि ॥११४॥ लम्बितं नमनं मूर्ध्नस्तस्योत्तरितमुन्नमः । उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः स्तनदावत्स्तनोन्नतिः ॥११५॥
ऊपर दोनों हाथों को घुमाना, गुरुसे आगे होकर पाठका उच्चारण करना आदि। ऐसे सभी दोष त्यागने योग्य हैं ।। १११ ॥
विशेषार्थ – मूलाचारमें अन्तिम दोषका नाम चुलुलित है । संस्कृत टीकाकारने इसका संस्कृतरूप चुरुलित किया है और लिखा है - एक प्रदेशमें स्थित होकर हाथोंको मुकुलित करके तथा घुमाकर जो सबकी वन्दना करता है अथवा जो पंचम आदि स्वरसे वन्दना करता है उसके चुरुलित दोष होता है ॥ १११ ॥
आगे ग्यारह श्लोकोंसे कायोत्सर्गके बत्तीस दोष कहते हैं
जैसे उत्तम घोड़ा एक पैरसे पृथ्वीको न छूता हुआ खड़ा होता है उस तरह एक पैर ऊपरको उठाकर खड़े होना कायोत्सर्गका घोटक नामक प्रथम दोष है । तथा जो वायुसे कम्पित लताकी तरह अंगोंको चलाता हुआ कायोत्सर्ग करता है उसके लता नामक दूसरा दोष होता है ॥ ११२ ॥
स्तम्भ, दीवार आदिका सहारा लेकर कायोत्सर्गसे खड़े होना स्तम्भ नामका तीसरा दोष है। पटा और चटाई आदिपर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना पट्टक नामक चतुर्थ दोष है । सिरके ऊपर माला, रस्सी आदिका सहारा लेकर कायोत्सर्ग करना माला नामक पाँचवाँ दोष है ॥ ११३ ॥
पैरोंको साँकलसे बँधे हुए की तरह करके कायोत्सर्गसे खड़े होना श्रृंखलित नामक छठा दोष है। भीलनीकी तरह दोनों हाथोंसे गुह्य प्रदेशको ढाँककर कायोत्सर्ग करना शबरी नामक सातवाँ दोष है ॥ ११४ ॥
विशेषार्थ -- मूलाचार ( ७ १७१ ) की संस्कृत टीका में भीलनीकी तरह दोनों जंघाओंसे जघन भागको दबाकर कायोत्सर्ग करनेको शबरी दोष कहा है । किन्तु अमितगतिश्रावका - चार में दोनों हाथोंसे जघन भागको ढाँकते हुए खड़े होनेको शबरी दोष कहा है । - यथा 'कराभ्यां जघनाच्छादः किरातयुवतेरिव' – ८ ९० ।।११४।।
सिरको नीचा करके कायोत्सर्ग करना लम्बित नामक आठवाँ दोष है । सिरको ऊपर
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