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धर्मामृत ( अनगार 'किदियम्म पि कुणंतो ण होदि किदियम्मणिज्जराभागी।
बत्तीसाणण्णदरं साहुट्ठाणं विराहतो॥' [ मूलाचार गा. ६०८] ॥९७॥ अथ चतुर्दशभिः श्लोकैात्रिंशद वन्दनादोषांल्लक्षयति
अनादृतमतात्पर्य वन्दनायां मदोधृतिः। स्तब्धमत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम् ॥९८।। हस्ताभ्यां जानुनोः स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम् । दोलायितं चलन् कायो दोलावत् प्रत्ययोऽथवा ॥१९॥ भालेऽङ्कुशवदगुष्ठ विन्यासोऽङ्कशितं मतम् । निषेदुषः कच्छपवद्रिङ्खा कच्छपरिङ्गितम् ॥१०॥ मत्स्योद्वतं स्थितिमत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपार्श्वतः । मनोदुष्टं खेवकृतिगुर्वाद्युपरि चेतसि ॥१०१॥ वेदिबद्धं स्तनोत्पीडो दोया वा जानुबन्धनम् । भयं क्रिया सप्तभयादबिभ्यता बिभ्यतो गुरोः ॥१०२॥ भक्तो गणो मे भावीति वन्वारोऋद्धिगौरवम् ।
गौरवं स्वस्य महिमन्याहारावावथ स्पृहा ॥१०३॥ अनादृतं-मल इति मध्यदीपकेन दोष इत्यन्तदोपकेन वा योज्यम् ॥९८।। दोलावत्-दोलायामिव दोलारूढस्येव वा । प्रत्ययः । चलन्-इत्येव चलन्ती प्रतीतिः संशय इत्यर्थः ॥९९॥ रिङ्गा-रिखणम् । १८ कच्छपरिङ्गितं-कूर्मवच्चेष्टितम् ।।१००॥ मत्स्योद्वर्तवत् । एकपाश्वतः स्थिति:-कटिभागोद्वर्तनेनाव
स्थानम् ॥१.१॥ वेदिबद्धं-वेदिकाबद्धं नाम दोषः । स्तनोत्पीड:-स्तनयोः प्रपीडनम् । जानुबन्धनंजिसके पश्चात् जो क्रिया करनी चाहिए वही क्रिया की जाती है वह कृतिकर्म निर्दोष माना गया है। मूलाचारमें कहा है-ग्रन्थ, अर्थ और दोनोंके भेदसे अथवा दो नति, बारह आवर्त
और चार शिरके भेदसे, अथवा-कृत-कारित अनुमोदनाके भेदसे अथवा प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और वन्दनाके भेदसे अथवा पंचनमस्कार, ध्यान और चतुर्विंशतिस्तवके भेदसे कृति कर्मके तीन भेद हैं । मन-वचन-कायकी विशुद्धिसे युक्त अथवा दो नति बारह आवर्त और चतुःशिर क्रियासे विशुद्ध, जाति आदिके मदसे रहित, पयंक और कायोत्सर्ग रूपमें पुनरुक्त-जिसमें बार-बार वही क्रिया की जाती है, और जो क्रमसे विशुद्ध है ऐसे कृतिकर्मको विनयपूर्वक करना चाहिए। किन्तु यदि साधु बत्तीस दोषोंमें-से किसी भी एक दोषसे विराधना करता है तो वह साधु कृतिकर्म करते हुए भी कृतिकमसे होनेवाली निर्जराका अधिकारी । नहीं होता ।।९७॥
आगे चौदह श्लोकोंके द्वारा बत्तीस दोषोंको कहते हैं
समस्त आदर भावसे रहित वन्दना करना अनाहत नामक प्रथम दोष है। जाति आदिके भेदसे आठ प्रकारके मदसे युक्त होना स्तब्ध नामक दूसरा दोष है । अर्हन्त आदि परमेष्ठियोंके अतिनिकट होना प्रविष्ट नामका तीसरा दोष है ।।९८॥
____ अपने हाथोंसे घुटनोंका संस्पर्श करना परिपीड़ित नामक चतुर्थ दोष है। झूलनेकी तरह शरीरको आगे-पीछे करते हुए वन्दना करना दोलायित नामक पाँचवाँ दोष है। अथवा जिसकी स्तुति करता हो उसमें, स्तुतिमें अथवा उसके फलमें सन्देह होना दोलायित दोष है ।।९९।।
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