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________________ धर्मामृत ( अनगार) 'चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि' इत्याधुच्चारणविरामेण 'णमो अरहंताणं' इत्याधुच्चारणकरणं संयतवाक्परावर्तनमभिधीयते । एवं सामायिकदण्डकस्य तत्त्रयं कल्प्यम् । तथैव च स्तवदण्डकस्यादावन्ते च पृथक स्वदण्डकस्यादावन्ते च पृथक् तत्त्रयमवसेयम् । इति समुदितानि चत्वारि तत्त्रयाणि द्वादशावर्ता एकस्मिन् कायोत्सर्गे भवन्ति । एतच्च भगवद्वसुनन्दिसैद्धान्तदेवपादैराचारटीकायां 'दुओ णदं जहाजादं' इत्यादिसूत्रे व्याख्यातं द्रष्टव्यम् । तथैव चान्वाख्यातं क्रियाकाण्डेऽपि 'द्वेनते साम्यनुत्यादौ भ्रमास्त्रिस्त्रिस्त्रियोगगाः । त्रिस्त्रिभ्रंमे प्रणामश्च साम्ये स्तवे मुखान्तयोः ॥' एतदेव चामितगतिरप्यन्वाख्यात 'कथिता द्वादशावर्ता वपुर्वचनचेतसाम् । स्तवसामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणाः ॥' [ अमि. श्रा. ८।६५ ] इदं चात्राचारटीकाव्याख्यानमवधार्यम'चतसृषु दिक्षु चत्वारः प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे । एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवन्तीति ॥' [मूलाचार गा. ६०१ टीका ] ॥८८॥ अथ वृद्धव्यवहारानुरोधार्थ हस्तपरावर्तनलक्षणान्नावर्तानुपदिशतिअवस्थान्तर धारण करनेको आवर्त कहते हैं, वे बारह होते हैं। क्योंकि सामायिक और स्तवके आदि और अन्त में किये जाते हैं। अतः २४३४२ = १२ होते हैं। अथवा मनोङ्गगीः और संयतको समस्त करना चाहिए। उसका अर्थ होगा-मन, शरीर और वाणीका संयमना अर्थात् सामायिकके प्रारम्भ और समाप्तिमें मन, वचन, कायका संयमन करना चाहिए । स्तवके प्रारम्भ और समाप्ति में मन, वचन, कायका संयमन करना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सामायिक दण्डकके आदिमें विकल्पोंको त्यागकर उसके उच्चारणके प्रति मन लगाना संयतमनपरावर्तन है। तथा भूमिका स्पर्श करते हुए वन्दनामुद्रापूर्वक जो नमन क्रिया की जाती है उसे त्यागकर पुनः खड़ा होकर दोनों हाथोंको मुक्ताशक्तिमद्रामें स्थापित करके तीन बार घुमानेको संयतकायपरावर्तन कहते हैं। 'चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि' इत्यादि उच्चारण करके 'णमो अरहंताणं' इत्यादि उच्चारण करना संयत वाक् परावर्तन है । इस प्रकार सामायिक दण्डकके प्रारम्भमें शुभयोग परावर्तन रूप तीन आवर्त होते हैं। इसी प्रकार सामायिक दण्डकके अन्त में भी यथायोग्य तीन आवर्त करना चाहिए । तथा इसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव दण्डकके आदि और अन्तमें भी तीन-तीन आवर्त करना चाहिए। इस प्रकार मिलकर ४४३८ १२ आवर्त एक कायोत्सर्गमें होते हैं। यह सब कथन आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिकने मूलाचारकी गाथा 'दुओणदं जधा जादं' (७१०४ ) की टीकामें लिखा है। संस्कृत क्रियाकाण्डमें भी ऐसा ही कहा है-अर्थात् सामायिक और चतुर्विंशतिस्तबके आदि और अन्त में दो नमस्कार मन-वचन-काय सम्बन्धी तीन-तीन आवर्त और चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशामें तीन-तीन आवर्तके पीछे एक प्रणाम होता है। आचार्य अमितगतिने भी ऐसा ही कहा है-अर्थात् स्तव और सामायिकके आदि और अन्तमें मन-वचन-कायके परावर्तन रूप बारह आवर्त कहे हैं ।।८८॥ __इस प्रकार आवर्तका अर्थ तीनों योगोंका परावर्तन होता है। किन्तु वृद्धजनोंके व्यवहार में इसे हाथोंका परावर्तन भी कहते हैं। इसलिए यहाँ उसका भी कथन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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