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________________ प्रथम अध्याय अथ धर्मोपदेशमभिनन्दतिधर्म केऽपि विदन्ति तत्र धुनते सन्देहमन्येऽपरे, तभ्रान्तेरपयन्ति सुष्ठु तमुशन्त्यन्येऽनुतिष्ठन्ति वा। श्रोतारो यदनुग्रहादहरहर्वक्ता तु रुन्धनघं, विष्वग्निर्जरयंश्च नन्दति शुभैः सा नन्दताद्देशना ॥५॥ विदन्ति-निश्चिन्वन्ति, उशन्ति-कामयन्ते, रुन्धन्नघं, विष्वक्-समन्तादागामिपातकं निवार- ६ प्रशिष्य रूप चली आती परम्परा से सूत्रको सुना और अवधारण किया था। सत्य सयुक्तिक वचनको सत्र कहते हैं। इस समय यहाँ पर गणधर आदिके द्वारा रचित अंगप्रविष्टका कुछ अंश और आरातीय आचार्योंके द्वारा रचित अंगबाह्य, जो कि कालिक उत्कालिक भेदसे अनेक प्रकार है 'सूत्र' शब्दसे ग्रहण किया गया है। जिसका स्वाध्याय काल नियत होता है उसे कालिक श्रुत कहते हैं और जिसका स्वाध्यायकाल नियत नहीं होता उसे उत्कालिक कहते हैं । उस सूत्रको वे आचार्य ग्रन्थ रूपसे, अर्थरूपसे और उभयरूपसे सुनते हैं। विवक्षित अर्थका प्रतिपादन करने में समर्थ जो सूत्र, प्रकरण या आह्निक आदि रूपसे वचन रचना की जाती है उसे ग्रन्थ कहते हैं और उसका जो अभिप्राय होता है उसे अर्थ कहते हैं। वे धर्माचार्य कभी ग्रन्थ रूपसे, कभी अर्थ रूपसे और कभी ग्रन्थ और अर्थ दोनों रूपसे सूत्रको ठीक-ठीक सुनकर तथा उसकी जितनी विशेषताएँ हैं उन सबको ऐसा अवधारण करते हैं कि कालान्तरमें भी उन्हें भूले नहीं। तभी तो वे संसारसे भयभीत शिष्योंको उसका यथावत् ज्ञान कराते हैं। यथावत् ज्ञान करानेके लिए वे नयबलका आश्रय लेते हैं। आगमकी भाषामें उन्हें द्रव्याथिक नय और पर्यायार्थिक नय कहते हैं और अध्यात्मकी भाषामें निश्चयनय और व्यवहार नय कहते हैं । श्रुतज्ञान से जाने गये पदार्थ के एकदेशको जाननेवाले ज्ञान या उसके वचनको नय कहते हैं । नय श्रुतज्ञानके ही भेद हैं और नयोंके मूल भेद दो हैं । शेष सब नय उन्हींके भेद-प्रभेद हैं। दोनों ही नयोंसे वस्तु तत्त्वका निर्णय करना उचित है यही उनका बल है। उसीके कारण सर्वथा एकान्तवादियों के द्वारा उस निर्णीत तत्त्वमें बाधा नहीं दी जा सकती। ऐसे जिनागमके व्याख्याता आरातीय आचार्य वन्दनीय हैं । प्रत्येक आचार्य आरातीय नहीं होते । उक्त विशेषताओंसे युक्त आचार्य ही आरातीय कहलाते हैं ॥४॥ ___ इस प्रकार सिद्ध भगवानके स्वरूपका तथा उसकी प्राप्तिके उपायका कथन करने में समर्थ परमागमके उपदेष्टा, रचयिता और व्याख्याता होनेसे जिन्होंने अत्यन्त महान् गुरु संज्ञाको प्राप्त किया है, उन अर्हन्त भट्टारक, गणधर, श्रुतकेवली, अभिन्नदसपूर्वी, प्रत्येक बुद्ध और इस युगके धर्माचार्योंकी स्तुति करके, अब वक्ता और श्रोताओंका कल्याण करनेवाले उनके धर्मोपदेश का स्तवन करते हैं__जिस देशना-धर्मोपदेशके अनुग्रहसे प्रतिदिन अनेक श्रोतागण धर्मको ठीक रीतिसे जानते हैं, अनेक श्रोतागण अपने सन्देहको दूर करते हैं, अनेक अन्य श्रोतागण धर्मविषयक भ्रान्तिसे बचते हैं, कुछ अन्य श्रोतागण धर्म पर अपनी श्रद्धाको दृढ़ करते हैं तथा कुछ अन्य श्रोतागण धर्मका पालन करते हैं. और जिस देशनाके अनुग्रहसे वक्ता प्रतिदिन अपने शुभपरिणामोंसे आगामी पापबन्धको चहुँ ओरसे रोकता है और पूर्व उपार्जित कर्मकी निर्जरा करता हुआ, आनन्दित होता है वह देशना फूले-फले-उसकी खूब वृद्धि हो ॥५॥ विशेषार्थ-जिसके द्वारा जीव नरक आदि गतियोंसे निवृत्त होकर सुगतिमें रहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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