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________________ ३ ९ तित्रोsोsन्त्या निशश्चाद्या नाड्यो व्यत्यासिताश्च ताः । मध्याह्नस्य च षट्कालास्त्रयोऽमी नित्यवन्दने ॥७९॥ निशः - रात्रेः । व्यत्यासिताः - दिवसस्य प्रथमास्तिस्रो घटिका रात्रेश्च पश्चिमास्तिस्र इति । पूर्वादेववन्दनायामुत्कर्षेण घटिकाषट्ककालः । एवं मध्याह्नदेव वन्दनायां मध्यदिनघटिकाषट्कम् । ६ अपराहृदेववन्दनायां च दिवसस्यान्त्यास्तिस्रो घटिका रात्रेश्चाद्यास्तिस्र इति कलनीयः । उक्तं च घटिकाषट्कमुत्कर्षतः काल: १२ ६१८ १५ धर्मामृत (अनगार) अथ नित्यदेववन्दनायां त्रैकाल्यपरिमाणमाह 'मुहूर्तत्रितयं कालः सन्ध्यानां त्रितये बुधैः । कृतिकर्मविधिनित्यः परो नैमित्तिको मतः ॥ [ अथ कृतिकर्मणि योग्यासनावसायार्थमाह वन्दनासिद्धये यत्र येन चास्ते तदुद्यतः । तद्योग्यमासनं देशः पीठं पद्मासनाद्यपि ॥८०॥ यत्र - देशे पीठे च । येन - पद्मासनादिना । उक्तं च'आस्यते स्थीयते यत्र येन वा वन्दनोद्यतैः । ] ॥ ७९ ॥ तदासनं विबोद्धव्यं देशपद्मासनादिकम् ॥' [ अमि श्रा. ८३८ ] ॥८०॥ सर्व प्रथम नित्य देववन्दनाके सम्बन्ध में तीनों कालोंका परिमाण कहते हैंनित्यवन्दना के तीन काल हैं - पूर्वाह्न, अपराह्न और मध्याह्न । इनका परिमाण इस प्रकार है - दिनके आदिकी तीन घड़ी और रात्रि के अन्त की तीन घड़ी, इस तरह छह घड़ी. पूर्वाह्नवन्दनाका काल है । दिनके अन्तकी तीन घड़ी और रात्रिके आदिकी तीन घड़ी, इस तरह छह घड़ी अपराह्नवन्दनाका काल है तथा मध्याह्नकी छह घड़ी मध्याह्नवन्दनाका काल है ॥७९॥ विशेषार्थ - यह वन्दनाका उत्कृष्ट काल है। एक घड़ी में चौबीस मिनिट होते हैं अतः छह घड़ी में एक घण्टा चवालीस मिनिट होते हैं। तीनों सन्ध्याकालों में दिन और रातकी सन्धिके समय ७२-७२ मिनिट दोनोंके लेकर देववन्दना करनी चाहिए । अर्थात् प्रातःकालके समय जब रात्रि तीन घड़ी शेष हो तब देववन्दना प्रारम्भ करनी चाहिए। और सायंकालके समय जब दिन तीन घड़ी शेष हो तब देववन्दना प्रारम्भ करनी चाहिए। इसी तरह मध्याह्नमें जब पूर्वाह्नका काल तीन घड़ी शेष हो तब देववन्दना प्रारम्भ करनी चाहिए । कहा है- 'सन्ध्याओंमें नित्य कृतिकर्म विधिका उत्कृष्ट काल तीन-तीन मुहूर्त माना है' ||७९|| Jain Education International आगे कृतिकर्म में योग्य आसनका निर्णय करते हैं वन्दना के लिए उद्यत साधु वन्दनाकी सिद्धिके लिए जिस देश और पीठपर बैठता है उसके योग्य आसनको देश और पीठ कहते हैं । तथा वह साधु जिस आसन से बैठता है उस पद्मासन आदिको भी आसन कहते हैं ॥८०॥ विशेषार्थ-आसनसे यहाँ बैठनेका देश तथा उसमें बैठनेके लिए रखा गया आसन तो लिया ही गया है साथ ही वन्दना करनेवाला अपने पैरोंको जिस तरह करके बैठता है उस पद्मासन आदिको भी लिया गया है। कहा है- ' वन्दना के लिए तत्पर साधु जहाँ बैठता है और जिस रीति से बैठता है उस देश और पद्मासन आदिको आसन जानना चाहिए' ॥८०॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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