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धर्मामृत ( अनगार) व्युत्सृज्य दोषान् निःशेषान् सद्ध्यानी स्यात्तनुत्सृती।
सहेताऽप्युपसर्गोर्मीन् कमवं भिद्यते तराम् ॥७६॥ दोषान्-ईर्यापथाद्यतीचारान् कायोत्सर्गमलान् वा। सद्ध्यानी-धर्म्य शुक्लं वा ध्यानमाश्रितः । एतेनालस्याद्यभाव उक्तः स्यात् । उक्तं च--
'कायोत्सर्गस्थितो धीमान मलमीर्यापथाश्रयम् ।
निःशेषं तत्समानीय धयं शुक्लं च चिन्तयेत् ॥' [ भिद्यतेतराम् । स्तवाद्यपेक्षया प्रकर्षोऽत्र । उक्तं च
'उपसर्गस्तनूत्सर्ग श्रितस्य यदि जायते । देवमानवतिर्यग्भ्यस्तदा सह्यो मुमुक्षुणा ॥ साधोस्तं सहमानस्य निष्कम्पीभूतचेतसः। पतन्ति कर्मजालानि शिथिलीभूय सर्वतः ॥ यथाङ्गानि विभिद्यन्ते कायोत्सर्गविधानतः। कर्माण्यपि तथा सद्यः संचितानि तनूभृताम् ।। यमिनां कुर्वतां भक्त्या तनूत्सर्गमदूषणम् ।
कर्म निर्जीयते सद्यो भवकोटि-भ्रमार्जितम् ॥' [ ] ॥७६॥ अथ नित्यनैमित्तिककर्मकाण्डनिष्ठस्य योगिनः परम्परया निःश्रेयसप्रतिलभ्यमभिधत्तेनित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मलयन् कर्मणा
योऽभ्यासेन विपाचयत्यमलयन् ज्ञानं त्रिगुप्तिश्रितः। स प्रोदबद्धनिसर्गशुद्धपरमानन्दानुविद्धस्फुरद
विश्वाकारसमग्रबोधशुभगं कैवल्यमास्तिघ्नुते ॥७७॥ समस्त ईर्यापथादिक अतिचारों अथवा कायोत्सर्ग सम्बन्धी दोषोंको पूर्ण रीतिसे त्यागकर कायोत्सर्गमें स्थित मुमुक्षुको प्रशस्त धर्मध्यान या शुक्लध्यान ही करना चाहिए ।
और उपसगे तथा परीषहोंको सहना चाहिए। ऐसा करनेसे ज्ञानावरणादि कर्म स्वयं ही विगलित हो जाते हैं ॥७६।।
विशेषार्थ-यदि कायोत्सर्ग करते समय देवकृत, मनुष्यकृत या तिथंचकृत कोई उपसर्ग आ जाये तो उसे सहना चाहिए और ऐसे समयमें भी धर्मध्यान या शुक्लध्यान ही ध्याना चाहिए । जो साधु परीषह और उपसर्गसे विचलित न होकर उसे धीरता पूर्वक सहन करता है उसका कर्मबन्धन शिथिल होकर छूट जाता है। जो साधु भक्तिपूर्वक निर्दोष कायोसर्ग करते हैं उनके पूर्वभवोंमें अर्जित कर्म शीघ्र ही निर्जीर्ण हो जाते हैं अतः कायोत्सर्ग सावधानीसे करना चाहिए ।।७।।
आगे कहते हैं कि नित्य और नैमित्तिक क्रियाकाण्डमें निष्ठ योगी परम्परासे मोक्ष लाभ करता है
ऊपर कहे अनुसार नित्य नैमित्तिक क्रियाओंके द्वारा पापका मूलसे निरसन करते हुए तीनों गुप्तियोंके आश्रयसे अर्थात् मन वचन और कायके व्यापारको सम्यक् रूपसे निगृहीत करके जो अभ्यासके द्वारा ज्ञानको निर्मल बनाते हुए परिपक्व करता है वह योगी प्रोदबुद्ध अर्थात् अपुनर्जन्मरूप लक्षणके द्वारा अभिव्यक्त, स्वभावसे ही निर्मल, और परम आनन्दसे
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