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धर्मामृत (अनगार )
अथ प्रस्रावादिप्रतिक्रमणास्वर्हच्छायादिवन्दनायां स्वाध्यायादिषु च कायोत्सर्गोच्छ्वाससंख्याविशेषनिश्चयार्थमाह
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मूत्रोच्चाराध्वभक्तार्हत्साधुशय्याभिवन्दने ।
पञ्चाग्रा विंशतिस्ते स्युः स्वाध्यायादौ च सप्तयुक् ॥७३॥
उच्चारः - पुरीषोत्सर्गः । अध्वा - ग्रामान्तरगमनम् । भक्तं -- गोचारः । अर्हच्छय्या – जिनेन्द्रनिर्वाण समवसृति- केवलज्ञानोत्पत्ति-निष्क्रमण- जन्मभूमिस्थानानि । साधुशय्याः - श्रमण निषिद्धिकास्थानानि । स्वाध्यायादी - आदिशब्देन ग्रन्थादिप्रारम्भे प्रारब्धग्रन्थादिसमाप्तौ वन्दनायां मनोविकारे च तत्क्षणोत्पन्ने । उक्तं च
'ग्रामान्तरेऽन्नपानेऽहंत्साधुशय्याभिवन्दने । प्रस्रावे च तथोच्चारे उच्छ्वासाः पञ्चविंशतिः ॥ स्वाध्यायोद्देशनिर्देशे प्रणिधानेऽथ वन्दने । सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः कायोत्सर्गेऽभिसंमताः ॥' [
कायोत्सर्गों के उच्छ्वास जानने चाहिए। इतने उच्छ्वासपर्यन्त कायोत्सर्ग किया जाता है । श्वेताम्बरीय आवश्यक भाष्य में कहा है कि इन पाँचों में कायोत्सर्ग के उच्छ्वासों का प्रमाण नियत है शेषमें अनियत है ||७२ ||
मूत्र त्याग आदि करके जो प्रतिक्रमण किया जाता है उस समय, अथवा अर्हत् शय्या आदि की वन्दना के समय और स्वाध्याय आदिमें किये जानेवाले कायोत्सर्गके उच्छ्वासोंकी संख्या बतलाते हैं
मूत्र और मलका त्याग करके, एक गाँवसे दूसरे गाँव पहुँचनेपर, भोजन करनेपर, अर्हत् शय्या और साधुशय्याकी बन्दना करते समय जो कायोत्सर्ग किये जाते हैं उसका प्रमाण पचीस उच्छवास है । स्वाध्याय आदिमें जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसके उच्छ्वासोंका प्रमाण सत्ताईस होता है || १३ ||
विशेषार्थ - मूलाचार में कहा है - खान पान सम्बन्धी प्रतिक्रमणके विषय में जब साधु गोचरीसे लौटे तो उसे पचीस उच्छूवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। एक गाँव से दूसरे गाँव जानेपर पचीस उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए । अत् शय्या अर्थात् जिनेन्द्र निर्वाणकल्याणक, समवसरण, केवलज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान, तपकल्याणक और जन्म भूमिके स्थान पर वन्दना के लिए जानेपर पचीस उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना. चाहिए | साधुशय्या अर्थात् किसी साधुके समाधिस्थानपर जाकर लौटनेपर पचीस उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। तथा मूत्रत्याग या मलत्याग करने पर पचीस उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। किसी ग्रन्थको प्रारम्भ करते समय प्रारम्भ किये हुए
१. 'देसिअ - राईअ - पक्खिअ चाउम्मासिय तहेव वरिसे अ ।
एएस होंति निअया उस्सग्गा अनियया सेसा ॥ ' - २३४ ।
२. 'भत्ते पाणे गामंतरे य अरहंतसयण सेज्जासु ।
उच्चारे परसवणे पणवीसं होंति उस्सासा ॥
उसे णिसे सज्झाए वंदणे य पणिधाणे ।
सत्तावीसुसासा काओसग्ग िकादव्वा ॥ ' - मूला, ७।१६३-१६४
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