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धर्मामृत ( अनगार) अथ पञ्चभिः पद्यः प्रत्याख्यानं व्याख्यातुकामो नामादिषड्विधनिक्षेपविभक्तं तत्तावल्लक्षयन्नाह
निरोद्धमागो यन्मार्गच्छिदो निर्मोक्षुरुज्झति ।
नामादीन् षडपि त्रेधा तत्प्रत्याख्यानमामनेत् ॥६॥ मार्गच्छिदः-रत्नत्रयविरोधिनः। तथा चोक्तम्
'नामादीनामयोग्यानां षण्णां त्रेधा विवर्जनम् ।
प्रत्याख्यानं समाख्यातमागम्यागोनिषिद्धये ॥' निर्मोक्षः-मोक्षार्थी। तत्-अयोग्यनामाधुज्झनलक्षणम् । तथाहि-अयोग्यानि पापकारणानि नामानि न कर्तव्यानि न कारयितव्यानि, नानुमन्तव्यानीति नामप्रत्याख्यानं प्रत्याख्याननाममात्रं वा । तथा पापबन्धहेतुभूता मिथ्यात्वादिप्रवर्तिका मिथ्यादेवतादिस्थापनाः पापकारणद्रव्यप्रतिरूपाणि च न कर्तव्यानि न कारयितव्यानि नानुमन्तव्यानीति स्थापनाप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानपरिणतप्रतिबिम्ब वा सद्भावासद्भावरूपं तत्स्यात् । पापाथ
सावधं द्रव्यं निरवद्यमपि च तपोऽथं त्यक्तं न भोज्यं न भोजयितव्यं नानुमन्तव्यमिति द्रव्यप्रत्याख्यानम् । अथवा १२ प्रत्याख्यानप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तस्तच्छरीरं भाविजीवस्तद्वयतिरिक्तं च तत्स्यात् । असंयमादिहेतुभूतस्य क्षेत्रस्य
त्यजनं त्याजनं त्यज्यमानस्यानुमोदनं च क्षेत्रप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानपरिणतेन सेवितः प्रदेशो वा। असंयमादिनिमित्तस्य कालस्य त्यजनादिकं कालप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानपरिणतेन सेवितः कालो वा । मिथ्यात्वादीनां
तथा ज्ञानकी शुद्धिके लिए 'मैं' शब्दसे वाच्य आत्मा ही मैं हूँ, शरीर आदि मैं नहीं हूँ, इस ज्ञानकी ही मैं आराधना करता हूँ। तथा ज्ञानकी शद्धिको भ्रष्ट करनेवाला जो अज्ञान है कि 'शरीरादि पर द्रव्य मैं हूँ' इसे मैं छोड़ता हूँ। इत्यादि । इसका विस्तार अमृतचन्द्र रचित समयसार टीका (गाथा ३८३-३८९ ) में देखना चाहिए ॥६॥
आगे पाँच पद्योंसे प्रत्याख्यानका कथन करते हैं। उसके छह निक्षेपोंकी अपेक्षा छह भेद हैं। प्रथम उसका लक्षण कहते हैं
पापकर्मोंका निवारण करने के लिए मुमुक्षु भव्य जो रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गके विरोधी छहों अयोग्य नाम स्थापना आदिका मन, वचन, कायसे त्याग करता है उसे आचार्य प्रत्याख्यान कहते हैं ॥६५॥
विशेषार्थ-प्रत्याख्यानमें छह निक्षेप इस प्रकार होते हैं-नाम प्रत्याख्यान, स्थापना प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान, क्षेत्र प्रत्याख्यान, काल प्रत्याख्यान और भाव प्रत्याख्यान । अयोग्य अर्थात् पापके हेतु नामोंको न करना चाहिए, न कराना चाहिए और न अनुमोदन करना चाहिए। यह नाम प्रत्याख्यान है। अथवा 'प्रत्याख्यान' इस नाममात्रक प्रत्याख्यान कहते हैं। पापबन्धके कारणभूत और मिथ्यात्व आदिमें प्रवृत्ति करानेवाली स्थापनाको अयोग्य स्थापना कहते हैं। मिथ्या देवता आदि-के प्रतिबिम्ब, जो पापके कारण द्रव्य रूप हैं उन्हें न करना चाहिए, और न कराना चाहिये और न उनकी अनुमोदन करना चाहिये । यह स्थापना प्रत्याख्यान है। अथवा प्रत्याख्यान की सद्भाव या असद्भाव रूप प्रतिबिम्ब स्थापना प्रत्याख्यान है। जो सावध द्रव्य पापबन्धका कारण है अथवा निर्दोष होने पर भी तपके लिये त्याग दिया गया है उसे न स्वयं सेवन करना चाहिए, न अन्यसे सेवन कराना चाहिए और कोई सेवन करता हो तो उसकी अनमोदना नहीं करनी चाहिए। यह द्रव्य प्रत्याख्यान है। अथवा जो मनुष्य प्रत्याख्यान विषयक आगमका ज्ञाता है किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है उसे आगम द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं। प्रत्याख्यान विषयक ज्ञाताका शरीर, उसके कर्म नोकर्म तथा जो जीव भविष्य में प्रत्याख्यान विषयक शास्त्रका ज्ञाता होगा,
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