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________________ प्रथम अध्याय वाक्यः-दिव्यध्वनिभिः । उक्तं च 'पुव्वण्हे मज्झण्हे अवरण्हे मज्झिमाए रत्तीए । छच्छघडियाणिग्गय दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थे ।' उचितान्-योग्यान् सभासमायातभव्यानित्यर्थः। -अर्हन्-अरिहननात् रजोरहस्यहरणाच्च परिप्राप्तानन्तचतुष्टयस्वरूपः सन् इन्द्रादिनिर्मितामतिशयवती पूजामहतीति निरुक्तिविषयः ॥२॥ अथेदानीमहद्भट्टारकोपदिष्टार्थसमयग्रन्थकत्वेन सकलजगदुपकारकान् गणधरदेवादीन् मनसि निधत्ते- ६ सूत्रग्रथो गणधरानभिन्नदशपूर्विणः। प्रत्येकबुद्धानध्येमि श्रुतकेवलिनस्तथा ॥३॥ सूत्रग्रथः-सूत्रमहद्भासितमर्थसमयं ग्रथ्नन्ति अङ्गपूर्वप्रकीर्णकरूपेण रचयन्तीत्येतान् । गणधरान्- ९ गणान् द्वादश यत्यादीन् जिनेन्द्रसभ्यान् धारयन्ति मिथ्यादर्शनादौ (मिथ्यादर्शनादेविनिवृत्य सम्यग्दर्शनादी) स्थापआगे आचार्यने लिखा है कि कोई लोग ऐसा कहते हैं कि दिव्यध्वनि देवोंके द्वारा की जाती है किन्तु ऐसा कहना मिथ्या है क्योंकि ऐसा कहनेमें भगवान्के गुणका घात होता है। इसके सिवाय दिव्यध्वनि साक्षर होती है क्योंकि लोकमें अक्षरोंके समूहके विना अर्थका ज्ञान नहीं होता। यह दिव्य ध्वनि प्रातः, मध्याह्न, सायं और रात्रिके मध्यमें छह छह घड़ी तक अर्थात्. एक बारमें एक घण्टा ४४ मिनिट तक खिरती है, ऐसा आगममें कथन है। अर्हन्त परमेष्ठी इस दिव्य ध्वनिके द्वारा मोक्षमार्गकी जिज्ञासासे समवसरणमें समागत भव्य जीवोंको उपदेश देते हैं। कहा भी है-दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओंसे बाँधे गये तीर्थंकर पुण्य कर्मके उदयसे भगवान् तीर्थंकर अर्हन्त जिज्ञासु प्राणियोंको इष्ट वस्तुको देनेवाले और संसारकी पीड़ाको हरनेवाले तीर्थका उपदेश देते हैं। अरि-मोहनीय कर्मका हनन करनेसे अथवा ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्मका घात करनेसे उन्हें अरिहन्त कहते हैं और उक्त कर्मोंको नष्ट करके अनन्तचतुष्टय स्वरूपको प्राप्त कर लेनेसे इन्द्रादिके द्वारा निर्मित अतिशय युक्त पूजाके पात्र होनेसे अर्हन्त कहते हैं। वे अर्हन्त हमारी रक्षा करें-अभ्युदय और मोक्षसे भ्रष्ट करनेवाली बुराइयोंसे हमें बचावें ॥२॥ आगे अर्हन्त भगवानके द्वारा उपदिष्ट अर्थको शास्त्रमें निबद्ध करनेके द्वारा सकल जगत्के उपकारक गणधर देव आदिका स्मरण करते हैं सूत्रोंकी रचना करनेवाले गणधरों, अभिन्न दसपूर्वियों, प्रत्येक बुद्धों और श्रुतकेवलियोंका मैं ध्यान करता हूँ ॥३॥ विशेषार्थ-जिनेन्द्रदेवके समवसरणमें आये हुए मुनि आदि बारह गणोंको जो धारण करते हैं, उन्हें मिथ्यात्व आदिसे हटाकर सम्यग्दर्शन आदिमें स्थापित करते हैं उन्हें गणधर या धर्माचार्य कहते हैं। वे अर्हन्त भगवानके द्वारा उपदिष्ट अर्थकी बारह अंगों और चौदह पूर्वोमें रचना करते हैं। दशपूर्वी भिन्न और अभिन्नके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमेंसे जो ग्यारह अंगोंको पढ़कर पुनः परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व और चूलिका इन पाँच अधिकारोंमें निबद्ध बारहवें दृष्टिवाद अंगको पढ़ते समय जब उत्पादपूर्वसे लेकर दसवें १. दृग्विशुद्धयाद्युत्थतीर्थकृत्वपुण्योदयात् स हि । शास्त्यायुष्मान् सतोऽतिघ्नं जिज्ञासूंस्तीर्थमिष्टदम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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