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________________ ६०० धर्मामृत ( अनगार) अथ प्रतिक्रमणादेरधस्तनभूमिकायामनुष्याने मुमुक्षोरुपकारः स्यादननुष्ठाने चापकारो भवेत् । उपरिमभूमिकायामनुष्ठाने अपकार एव भवेदित्युपदेशार्थमाह प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहरणं धारणा निवृत्तिश्च । निन्दा गर्दा शुद्धिश्चामृतकुम्भोऽन्यथापि विषकुम्भः ॥६॥ प्रतिक्रमणं-दण्डकोच्चारणलक्षणं द्रव्यरूपम् । प्रतिसरणं-गुणेषु प्रवृत्तिलक्षणा सारणा । परि६ हरणं-दोषेभ्यो व्यावृत्तिलक्षणा हारणा। धारणा चित्तस्थिरीकरणम् । निवृत्तिः-अन्यत्र गतचित्तस्य पुनर्व्यावर्तनम् । शुद्धिः प्रायश्चित्तादिनाऽऽत्मनः शोधनम् । अमृतकुम्भ:-प्रतिक्रमणाद्यष्टकमधस्तनभूमिकायाममृतकुम्भ इव चित्तप्रसादालादविधानात् । अन्यथा-अप्रतिक्रमणादिप्रकारेण यतेर्वृत्तिविषकुम्भः पापानुबन्धनिबन्धत्वेन मोहसंतापादिविधानात् । अपिशब्दादुपरितनभूमिकायां प्रतिक्रमणादिरपि विषकुम्भः पुण्यास्रवणकारणत्वेन मन्दमतिमोहादिविधानात् । यदाहु: 'पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइमोहो। १२ मइ मोहेण वि पापं तं पुण्णं अम्ह मा होउ ॥' [परमात्मप्र., २।६० ] किं च, प्रतिक्रमणमित्यत्र ककाररेफसंयोगपरत्वेन प्रागिकारस्य गुरुत्वादार्याछन्दोभङ्गो न शयः शिथिलोच्चारणस्य विवक्षितत्वात् यथेह 'वित्तैर्येषां प्रतिपदमियं पूरिता भूतधात्री, निर्जित्यैतद् भुवनवलयं ये विभुत्वं प्रपन्नाः। तेऽप्येतस्मिन् गुरुभवह्रदे बुद्बुदस्तम्बलीलां धृत्वा धृत्वा सपदि विलयं भूभुजः संप्रयाताः ॥' [ यथा वा 'जिनवरप्रतिमानं भावतोऽहं नमामि' इत्यादि ॥६३॥ जबकि आदि और अन्तिम तीर्थकरके साधु एक दोष लगनेपर सब प्रतिक्रमण दण्डकोंको पढ़ते हैं। ईर्या, गोचर, स्वप्न आदि सबमें अतीचार लगे या न लगे, भगवान् ऋषभनाथ और भगवान महावीरके शिष्य नियमसे सभी प्रतिक्रमणदण्डकोंको पढ़ते हैं। इसका कारण यह है कि मध्यम तीर्थंकरोंके शिष्य भूलते नहीं थे, स्थिरचित्त थे, प्रत्येक क्रिया समझ-बूझकर करते थे । अतः वे जो दोष करते थे, उस दोषकी गर्दा करनेसे शुद्ध हो जाते थे। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थकरके शिष्य चंचल चित्त थे, बार-बार समझानेपर भी नहीं समझते थे। इसलिए उन्हें सभी प्रतिक्रमणदण्डक करने होते हैं जिससे एकमें मन स्थिर न हो तो दूसरे या तीसरेमें हो सके ॥६२॥ आगे कहते हैं कि नीचेकी भूमिकामें प्रतिक्रमण आदि करनेपर मुमुक्षुका उपकार होता, है, न करने पर अपकार होता है। किन्तु ऊपरकी भूमिकामें तो प्रतिक्रमण आदि करनेपर अपकार ही होता है प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा, शुद्धि ये आठ नीचेकी भूमिकामें अमृतके घट के समान हैं और नहीं करनेपर विषके घड़ेके समान हैं। किन्तु ऊपरकी भूमिकामें प्रतिक्रमण आदि भी विषकुम्भके समान हैं ॥६३॥ । *विशेषार्थ-दण्डकोंका पाठ द्रव्यरूप प्रतिक्रमण है । गुणोंमें प्रवृत्तिको प्रतिसरण या सारण कहते हैं। दोषोंसे निवृत्तिको परिहरण या हारण कहते हैं। चित्तके स्थिर करनेको धारणा कहते हैं। चित्तके अन्यत्र जाने पर उसे वहाँसे लौटाने को निवृत्ति कहते हैं। निन्दा १. गुरुवचह्रदे भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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