________________
१२
५९८
धर्मामृत ( अनगार ) 'जीवो दु पडिक्कमओ दव्वे खेत्ते य काल भावे य । पडिगच्छदि जेण जहिं तं तस्स भवे पडिक्कमणं ।' पडिकमिदव्वं दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सयं तिवि।
खेत्तं च गिहादीयं कालो दिवसादिकालम्हि ॥ मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव असंजमे पडिक्कमणं ।
कसाएसु पडिक्कमणं जोगेसु य अप्पसत्येसु ।। [ मूलाचार, गा. ६१५-६१७ ] ॥६१॥ अथ प्रतिक्रमणप्रयोगमाह
निन्दा-गौलोचनाभियुक्तो युक्तेन चेतसा।।
पठेद्वा शृणुयाच्छुद्धचे कर्मघ्नान्नियमान् समान् ॥६२॥ निन्देत्यादि । कृतदोषस्यात्मसाक्षिकं 'हा दुष्टं कृतमिति चेतसि भावनं निन्दा। तदेव गरुसाक्षिक गीं। गुणदोषनिवेदनमालोचनम् । तेष्वभियुक्तोऽभ्युत्थित उद्यत इति यावत् । तैर्वा अभि समन्ताद् युक्तः .. परिणतः । भावप्रतिक्रमणसमाहित इत्यर्थः । तथा चोक्तम्
'आलोयणणिदणगरहणाहिं अब्भुट्टिओ अकरणाए ।
तं भावपडिक्कमणं सेसं पुण दव्वदो भणिदं ।' [ मूलाचार, गा. ६२३ ] विशेषार्थ-जो प्रतिक्रमण करता है वह कर्ता होता है। वह जिन दोषोंका प्रतिक्रमण करता है वे दोष उसके कर्म होते हैं। जिन परिणामोंसे अथवा पाठादिसे दोषोंकी शुद्धि की जाती है वे परिणामादि उसके करण होते हैं और प्रतिक्रमणका आधार व्रतादि या व्रतधारी जीव अधिकरण होता है। इस तरह प्रतिक्रमणरूप क्रियाके ये कर्ता, कर्म, करण और अधिकरण होते हैं, इनके बिना क्रिया नहीं हो सकती। मूलाचारमें कहा है-आहार, पुस्तक, औषध, उपकरण आदि द्रव्यके विषयमें, शयन, आसन, स्थान गमन आदिके विषयभूत क्षेत्रके विषयमें, घड़ी, मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, वर्ष, सन्ध्या, पर्व आदि कालके विषयमें, राग द्वेष आदि रूप भावके विषयमें, लगे दोषोंको और उनके द्वारा आगत कर्मोको नष्ट करनेमें तत्पर जीव प्रतिक्रमणका कर्ता होता है । जिस परिणामके द्वारा व्रत-विषयक अतीचारका शोधन करके पूर्वव्रतोंकी शुद्धि की जाती है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त द्रव्य, दिन, मुहूर्त, वर्षा आदि काल, घर नगर आदि क्षेत्र प्रतिक्रमणके योग्य हैं। अर्थात् जिस क्षेत्र काल और द्रव्यसे पापका आगमन होता है वह द्रव्य क्षेत्र काल त्यागने योग्य हैं । अथवा जिस कालमें प्रतिक्रमण कहा है उसी कालमें करना चाहिए। अर्थात् अप्रासुक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव त्यागने योग्य है और उनके द्वारा लगे। दोषोंका शोधन करना चाहिए । मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और अशुभयोग सम्बन्धी दोषोंका शोधन करना भाव प्रतिक्रमण है ॥६१।।
आगे प्रतिक्रमणकी विधि कहते हैं
निन्दा, गर्दा और आलोचनामें तत्पर साधुको सावधान चित्तसे सब कर्मोंका घात करनेवाले सब प्रतिक्रमण पाठोंको दोषोंकी शुद्धिके लिए पढ़ना चाहिए या आचार्य आदिसे सुनना चाहिए ॥६२॥
विशेषार्थ-अपनेसे जो दोष हुआ हो उसके लिए स्वयं ही अपने मनमें ऐसी भावना होना कि खेद है मुझसे ऐसा दोष हो गया' इसे निन्दा कहते हैं। यदि ऐसी भावना गुरु के सामने की जाये तो इसे गर्दा कहते हैं और गुरुसे दोष निवेदन करने को आलोचना कहते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org