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________________ अष्टम अध्याय मित्यर्थः । न मुह्यति 'क्वापि' इत्यनुवृत्त्या देवताभासादौ न विपर्येति । निजाः कर्मसंवरणनिर्जरण-मोक्षणाभ्युदयप्रापणदुर्गतिनिवारणादिलक्षणाः ॥१०॥ अथ आत्मनो ज्ञानविषयरत्यादिपरिणतिं परामृशति सत्यान्यात्माशीरनुभाव्यानीयन्ति चैव यावदिवम् । ज्ञानं तदिहास्मि रतः संतुष्टः संततं तृप्तः ॥११॥ • विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके आठ अंग होते हैं। जैसे आठ अंगोंसे सहित शरीर परिपूर्ण और कार्य करने में समर्थ होता है वैसे ही आठ अंगोंसे सहित सम्यग्दर्शन पूर्ण माना जाता है। आचार्य समन्तभद्रने कहा है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन संसारका छेद करने में समर्थ नहीं होता। इन आठों अंगोंका स्वरूप पहले कहा है उन्हींकी यहाँ सूचना की है। पहला अंग है निःशंकित । शंकाका अर्थ भय भी है। वे सात होते हैं-इस लोकका भय, परलोकका भय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय और आकस्मिक भय । सम्यग्दृष्टि इन सातों भयोंसे मुक्त होता है। क्योंकि वह जानता है कि इस आत्माका ज्ञान रूप शरीर किसीसे भी बाधित नहीं होता। वज्रपात होनेपर भी उसका विनाश नहीं होता। कहा है-निश्चल क्षायिक सम्यग्दृष्टि भयंकर रूपोंसे, हेतु और दृष्टान्तके सूचक वचनोंसे कभी भी विचलित नहीं होता। तथा वह इस जन्ममें भोगादिकी और परलोकमें इन्द्रादि पदकी कामना नहीं करता, यह निःकांक्षित अग है। तथा सम्यग्दृष्टि वस्तुके धर्म, भूख-प्यास, शीत-उष्ण आदि भावोंमें तथा विष्ठा आदि मलिन द्रव्योंसे घृणा भाव नहीं रखता। यह निर्विचिकित्सा अंग है। तथा सम्यग्दृष्टि सब पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप जानता है इसलिए कुदेवों आदिके सम्बन्धमें भ्रममें नहीं पड़ता। यह अमूढदृष्टि अंग है। वह अपनी कर्मोंका संवरण करने रूप, निर्जीण करने रूप और मोक्षण करने रूप शक्तियोंको तथा दुर्गतिके निवारणरूप और अभ्युदयको प्राप्त करानेवाली शक्तियोंको बढ़ाता है, पुष्ट करता है यह उपबृंहण गुण है। सम्यग्दृष्टि निश्चयसे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावरूप है इसलिए अपने रत्नत्रयरूप मार्गसे डिगते हुए आत्माको उसीमें स्थिर करता है। यह स्थितिकरण अंग है। तथा निश्चयदष्टिसे अपना चिद्रप ही मोक्षका मार्ग है, उसीमें वात्सल्य भाव रखनेसे वात्सल्य अंग है। अपनी आत्मिक शक्ति को प्रकट करके प्रभावना अंग पालता है। इस तरह आठ अंग युक्त होनेसे मैं अष्टांग सम्यग्दर्शन रूप हूँ ऐसा सम्यग्दृष्टि अवलोकन करता है । कहा है 'अधिक कहनेसे क्या, अतीत कालमें जो मनुष्यश्रेष्ठ मुक्त हुए और जो भव्य आगे सोझेगे वह सब सम्यक्त्वका माहात्म्य जानो' ॥१०॥ आगे आत्माकी ज्ञानके विषयमें रति आदि रूप परिणतिको बतलाते हैं आत्मा, आशीः अर्थात् आगामी इष्ट अर्थकी अभिलाषा और अनुभवनीय पदार्थ ये तीनों ही सत्य हैं और ये उतने ही हैं जितना स्वयं प्रतीयमान ज्ञान है। इसलिए मैं ज्ञानमें सदा लीन हूँ, सदा सन्तुष्ट हूँ तथा तृप्त हूँ ॥११॥ १. 'रूपैर्भयङ्करैर्वाक्यहेतुदृष्टान्तसूचिभिः । जातु क्षायिकसम्यक्त्वो न क्षभ्यति विनिश्चलः ॥-अमित. पं.सं. १२९३ । २. "कि पलविएण बहुणा सिद्धा जे णरवरा गए काले । सिज्झहहिं जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥-बारस अणु. ९० । Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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