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धर्मामृत ( अनगार) एकत्वभावरसिको न कामभोगे गणे शरीरे वा। सजति हि विरागयोगी स्पृशति सदानुत्तरं धर्मम् ।। सकलपरीषहपृतनामागच्छन्तीं सहोपसर्गौधैः। दुर्धरपथकरवेगां भयजननीमल्पसत्त्वानाम् ।। धृतिनिबिडबद्धकक्षो विनिहन्ति निराकुलो मुनिः सहसा ।
धृतिभावनया शूरः संपूर्णमनोरथो भवति ॥ [ ] ॥१००॥ अथ भक्तप्रत्याख्यानस्य लक्षणं सल्लेखनायाः प्रभृत्युत्कर्षतो जघन्यतश्च कालमुपदिशति
यस्मिन् समाधये स्वान्यवैयावृत्यमपेक्षते ।
तदद्वादशाब्दानीषेऽन्तर्मुहूतं चाशनोज्झनम् ॥१०१॥ अब्दात्-संवत्सरात् । ईषे-इष्टं पूर्वमाचार्येरिति शेषः । अशनोज्झन-भक्तप्रत्याख्यानमरणम् ॥१०१॥ अथ व्युत्सर्गतपसः फलमाह
नैःसङ्गचं जीविताशान्तो निर्भयं दोषविच्छिदा।
स्याद् व्युत्सर्गाच्छिवोपायभावनापरतादि च ॥१०२॥ निर्भयं-भयाभावः ॥१०२॥
अथ दुनिविधानपुरस्सरं सद्ध्यानविधानमभिधाय तेन विना केवलक्रिया निष्ठस्य मुक्त्यभावं भावयन्नाहअतः वह भयको अनर्थका मूल मानकर उसे भगाता है । जैसे युद्धोंका अभ्यासी वीर पुरुष युद्धसे नहीं डरता वैसे ही सत्त्वभावनाका अभ्यासी मुनि उपसर्गोंसे नहीं घबराता। 'मैं एकाकी हूँ, न कोई मेरा है न मैं किसीका हूँ' इस भावनाको एकत्वभावना कहते हैं। इसके अभ्याससे कामभोगमें, शिष्यादि वर्गमें और शरीर आदिमें आसक्ति नहीं होती। और विरक्त होकर उत्कृष्ट चारित्रको धारण करता है। पाँचवीं धृतिबल भावना है। कष्ट पड़नेपर भी धैर्यको न छोड़ना धृतिबल भावना है जो उसके अभ्याससे ही सम्भव है। इन पाँच शुद्ध भावनाओंके अभ्याससे मुनिवर आत्मशुद्धि करके रत्नत्रयमें निरतिचार प्रवृत्ति करते हैं ॥१०॥
आगे भक्तप्रत्याख्यानका लक्षण और सल्लेखनासे लेकर उसका जघन्य और उत्कृष्ट . काल कहते हैं
समाधिके इच्छुक मुनि जिसमें समाधिके लिए अपना वैयावृत्य स्वयं भी करते हैं और दूसरोंसे भी करा सकते हैं उस भक्तप्रत्याख्यानका उत्कृष्ट काल बारह वर्ष और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पूर्वाचार्योंने माना है ॥१०१।।
आगे व्युत्सर्ग तपका फल कहते हैं
व्यत्सर्ग तपसे परिग्रहोंका त्याग हो जानेसे निर्ग्रन्थताकी सिद्धि होती है, जीवनकी आशाका अन्त होता है, निर्भयता आती है, रागादि दोष नष्ट होते हैं और रत्नत्रयके अभ्यासमें तत्परता आती है ॥१०२॥
आगे खोटे ध्यानोंका कथन करनेके साथ सम्यक् ध्यानोंका स्वरूप कहकर उसके बिना केवल क्रियाकाण्डमें लगे हुए साधुको मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती, ऐसा कथन करते हैं
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