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________________ ५४६ धर्मामृत (अनगार) भक्तत्यागविधेः सिसाधयिषया येऽर्हाद्यवस्थाः क्रमा च्चत्वारिंशतमन्वहं निजबलादारोढुमुद्युञ्जते । चेष्टाजल्पनचिन्तनच्युतचिदानन्दामृतस्रोतसि ___स्नान्तः सन्तु शमाय तेऽद्य यमिनामत्राग्रगण्या मम ।।९९॥ क्रमात-एतेन दीक्षाशिक्षागणपोषणमात्मसंस्कारः सल्लेखना उत्तमार्थश्चेति षोढा कालक्रम लक्षयति । ६ आरोढुं-प्रकर्ष प्रापयितुम् । उद्युञ्जन्ते-उत्सहन्ते ।।९९।। अथ कान्दादिसंक्लिष्टभावनापरिहारेणात्मसंस्कारकाले तप:श्रुतसत्त्वैकत्वधतिभावनाप्रयुञ्जानस्य परीषहविजयमुपदिशति कान्वर्पोप्रमुखाः कुदेवगतिदाः पञ्चापि दुर्भावना___ स्त्यक्त्वा दान्तमनास्तपःश्रुतसदाभ्यासादबिभ्यद् भृशम् । भीष्मेभ्योऽपि समिद्धसाहसरसो भूयस्तरां भावय न्नेकत्वं न परीषहैतिसुधास्वादे रतस्तप्यते ॥१००॥ कुदेवगतिदाः-भाण्डतौरिककाहारशौनिककुक्कुरप्रायदेवदुर्गतिप्रदाः । पञ्चापि । तथा चोक्तम् 'कान्दी कैल्विषी चैव भावना चाभियोगजा। दानवी चापि सम्मोहा त्याज्या पञ्चतयी च सा॥ कन्दपं कौत्कुच्यं विहेडनं हासनमणी विदधत् । परविस्मयं च सततं कान्दी भावनां भजते ॥ केवलिधर्माचार्यश्रुतसाधूनामवर्णवादपरः । मायावी च तपस्वी कैल्विषकी भावनां कुरुते ॥ मन्त्राभियोगकौतुक-भूतक्रीडादिकर्मकुवणिः । सातरसद्धिनिमित्तादभियोगां भावनां भजते । जीवनपर्यन्त व्रतधारी संयमी जनोंमें अग्रेसर जो साधु आज भी इस भरतक्षेत्रमें भक्त प्रत्याख्यानकी विधिको साधनेकी इच्छासे क्रमसे प्रतिदिन अपनी सामर्थ्यसे अर्ह लिंग आदि चालीस अवस्थाओंकी चरम सीमाको प्राप्त करनेके लिए उत्साह करते हैं और मन-वचनकायकी चेष्टासे रहित ज्ञानानन्दमय अमृतके प्रवाहमें अवगाहन करके शुद्धिको प्राप्त करते हैं वे मेरे प्रशमके लिए होवें अर्थात् उनके प्रसादसे मुझे प्रशम भावकी प्राप्ति हो ।।१९।। जो साधु आत्मसंस्कारके समय कान्दपं आदि संक्लिष्ट भावनाओंको छोड़कर तप, श्रुत, एकत्व और धृति भावनाको अपनाता है वह परीषहोंको जीतता है ऐसा उपदेश करते हैं कुदेव आदि दुर्गतिको देनेवाली कान्दी आदि पाँच दुर्भावनाओंको छोड़कर, तप और श्रुतकी नित्य भावनासे मनका दमन करके जिसका साहसिक भाव निरन्तर जाग्रत् रहता है, अतः जो भयानक बैताल आदिसे भी अत्यन्त निडर रहता है, और बारम्बार एकत्व भावना भाता हुआ धैर्यरूपी अमृतके आस्वादमें लीन रहता है वह तपस्वी भूख-प्यास आदि परीषहोंसे सन्तप्त नहीं होता ॥१०॥ विशेषाथ-इन भावनाओंका स्वरूप यहाँ भगवती आराधनासे दिया जाता है अर्थात संक्लेश भावना पाँच हैं-कन्दर्पभावना, किल्विष भावना, अभियोग्यभावना, असुरभावना, सम्मोहभावना। रागकी उत्कटतासे हास्यमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना कन्दप है। रागकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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