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धर्मामृत ( अनगार) क्षमापणा । अणुसिट्ठी-सूत्रानुसारेण शिक्षादानम् । परगणे चरिया-अन्यस्मिन् संघे गमनम् । मग्गणाआत्मनो रत्नत्रयशुद्धि समाधिमरणं च संपादयितुं समर्थस्य सुरेरन्वेषणम् । सुट्ठिदा-सुस्थित आचार्यः परोपकारकरणे स्वप्रयोजने च सम्यस्थितत्वात् । उपसंपया-उपसंपत् आचार्यस्यात्मसमर्पणम् । परिच्छापरीक्षा गणपरिचारिकादिगोचरा । पडिलेहणा-आराधनानिर्विघ्नसिद्धयर्थ देशराज्यादिकल्याणगवेषणम् । आपूच्छा-किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यो न वेति संघं प्रति प्रश्नः। पडिच्छणमेगस्स-संघानुमतेनैकस्य क्षपकस्य स्वीकारः । आलोयणा-गुरोः स्वदोषनिवेदनम् । गुणदोसा-गुणा दोषाश्च प्रत्यासत्तेरालोचनाया एव । सेज्जा-शय्या वसतिरित्यर्थः । संथारो-संस्तरः। णिज्जवगा-निर्यापकाः आराधकस्य समाधिसहायाः । पगासणा-चरमाहारप्रकटनम् । हाणी-क्रमेणाहारत्यागः । पच्चक्खाणं-त्रिविधाहारत्यागः ।
मुनि समस्त परिग्रहके त्यागपूर्वक चतुर्विध आहारके त्यागरूप प्रायके साथ प्रविष्ट होता है। महापुराणमें वज्रनाभि मुनिराजके समाधिमरणका चित्रण करते हुए कहा है-आयुके अन्त समयमें बुद्धिमान् वज्रनाभिने श्रीप्रभ नामके ऊँचे पर्वतपर प्रायोपवेशन संन्यास धारण करके शरीर और आहारको छोड़ दिया। यतः इस संन्यासमें तपस्वी साधु रत्नत्रयरूपी शय्यापर बैठता है इसलिए इसको प्रायोपवेशन कहते हैं इस तरह यह नाम सार्थक है। इस संन्यासमें अधिकतर रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है इसलिए इसको प्रायोपगम भी कहते हैं। अथवा इस सन्यासमें पाप कर्म समूहका अधिकतर अपगम अर्थात् नाश होता है इसलिए इसे प्रायोपगम कहते हैं। इसके जानकार मुनिश्रेष्ठोंने इसके प्रायोपगमन नामकी निरुक्ति इस प्रकार भी की है कि प्रायः करके इस संन्यास में मुनि नगर ग्राम आदिसे हटकर अटवीमें चले जाते हैं । इस तरह इसके नामकी निरुक्तियाँ है । इन तीनों मरणोंमें-से भक्त प्रत्याख्यान मरणकी कुछ विशेषताएँ इस प्रकार कही हैं-अहका अर्थ योग्य है। यह क्षपक सविचार प्रत्याख्यानके योग्य है या नहीं, यह पहला अधिकार है। लिंग चिह्नको कहते हैं अर्थात् सम्पूर्णपरिग्रहके त्यागपूर्वक मुनि जो नग्नता धारण करते हैं वह लिंग है । भक्त प्रत्याख्यानमें भी वहीं लिंग रहता है । उसीका विचार इसमें किया जाता है। शिक्षासे ज्ञानादि भावना या ताभ्यास लेना चाहिए। पहले कहा है कि स्वाध्यायके समान तप नहीं है। अतः लिंग ग्रहणके अनन्तर ज्ञानार्जन करना चाहिए और ज्ञानार्जनके साथ विनय होनी चाहिए। विनयके साथ समाधि-सम्यक् आराधना अर्थात् अशुभोपयोगसे निवृत्ति और शुभोपयोगमें मनको लगावे । इस प्रकार जो समाधि मरणके योग्य है, जिसने मुक्तिके उपायभूत लिंगको धारण किया है, शास्त्र स्वाध्यायमें तत्पर है, विनयी है और मनको वशमें रखता है उस मुनिको अनियत क्षेत्रमें निवास करना चाहिए। अनियत विहारके गुण भगवती आराधना
१. ततः कालात्यये धीमान् श्रीप्रभाद्री समुन्नते ।
प्रायोपवेशनं कृत्वा शरीराहारमत्यजत् ॥ रत्नत्रयमयीं शय्यामधिशय्य तपोनिधिः । प्रायेणोपविशत्यस्मिन्नित्यन्वर्थमाशिषत् ॥ प्रायेणोपगमो यस्मिन् रत्नत्रितयगोचरः । प्रायेणापगमो यस्मिन् दुरितारि कदम्बकान् ॥ प्रायेणास्माज्जनस्थानादुपसृत्य गनोऽटवेः । प्रायोपगमनं तज्जैः निरुक्तं श्रमणोत्तमैः ॥-म. पु., ११९४-९७ ।
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