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प्रथम अध्याय
एतेन सम्यक्त्वचारित्राराधनाद्वयमासूत्रितं प्रतिपत्तव्यम् । अजस्रसुश्रुतपरा:-संततस्वात्मोन्मुखसंवित्तिलक्षणश्रुतज्ञाननिष्ठाः । यदवोचत् स्वयमेव स्तुतिषु
से संक्षेपरुचि शिष्योंकी अपेक्षा यहाँ ग्रन्थकारने सम्यक्त्व आराधना और चारित्र आराधनाको सूचित किया है । सम्यग्ज्ञानका सम्यग्दर्शनके साथ और तपका चारित्रके साथ अविनाभाव होनेसे उन दोनोंमें दोनोंका अन्तर्भाव हो जाता है।
सम्यग्दर्शनके साथ सम्यक्चारित्रको धारण करनेके पश्चात् साधुको निरन्तर सम्यक् श्रुतज्ञानमें तत्पर रहना चाहिए। अस्पष्ट ऊहापोह को श्रुतज्ञान कहते हैं। जब वह श्रुतज्ञान स्वात्मोन्मुख होता है, आत्मस्वरूपके चिन्तन और मननमें व्यापृत होता है तो वह सम्यक् श्रुत कहा जाता है। श्रुत शब्द 'श्रु' धातुसे बना है जिसका अर्थ है सुनना। किन्तु जैसे दर्शनमें दृश् धातुका देखना अर्थ छोड़कर श्रद्धान अर्थ लिया गया है उसी प्रकार श्रुतसे ज्ञानविशेष लिया गया है। अर्थात श्रतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका क्षयोपशम होनेपर जिस आत्मामें श्रुतज्ञानकी शक्ति प्रकट हुई है और साक्षात् या परम्परासे मतिज्ञानपूर्वक होनेसे उसमें अतिशय आ गया है उस आत्माकी अस्पष्ट रूपसे नाना अर्थोके प्ररूपण में समर्थ जो ज्ञानविशेषरूप परिणति है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। कहा भी है-'मतिज्ञान पूर्वक शब्द योजना सहित जो ऊहापोह होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मनकी सहायतासे जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। मतिज्ञान पूर्वक जो विशेष ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान होते ही जो श्रुतज्ञान होता है वह साक्षात् मतिज्ञान पूर्वक है और
प्रतज्ञानके बाद जो श्रतज्ञान होता है वह परम्परा मतिज्ञान पर्वक है। मतिज्ञानके बिना श्रुतज्ञान नहीं होता और मतिज्ञान होनेपर भी यदि श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका क्षयोपशम न हो तो भी श्रुतज्ञान नहीं होता। यद्यपि श्रुतज्ञान पाँचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए मतिज्ञान पूर्वक होता है तथापि संज्ञी पचेन्द्रिय जीवको होनेवाले श्रुतज्ञानमें शब्दयोजनाकी विशेषता है। शास्त्रीय चिन्तन शब्दको सुनकर चलता है । जैसे-'मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है। ज्ञान और दर्शन उसका लक्षण है। शेष मेरे सब भाव बाह्य है जो कर्मसंयोगसे प्राप्त हुए हैं । जीवने जो दुःख-परम्परा प्राप्त की है उसका मूल यह संयोग ही है अतः समस्त संयोग सम्बन्धको मन वचन कायसे त्यागता हूँ'। इस आगम-वचनको सुननेसे मनमें जो आत्मोन्मुख विचारधारा चलती है वस्तुतः वही सम्यक् श्रुत है उसीमें साधु तत्पर रहते हैं। यहाँ पर शब्दका अर्थ प्रधान है। उससे यह अभिप्राय है कि श्रुत स्वार्थ भी होता है और परार्थ भी है । ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ है और वचनात्मक श्रुत परार्थ है। सर्वदा स्वार्थश्रुतज्ञान भावनामें दत्तचित्त साधु भी कभी कभी अनादिवासनाके वशीभूत होकर शब्दात्मक परार्थ श्रुतमें भी लग जाते हैं। इस परार्थ श्रुतज्ञानीकी अपेक्षा 'जो सुना' जाये उसे श्रुत कहते हैं। अतः श्रुतका अर्थ शब्द होता है। शोभनीय श्रुतको सुश्रुत कहते हैं अर्थात् शुद्धचिदानन्दस्वरूप आत्माका कथन और तद्विषयक पूछताछ आदि रूपसे मुमुक्षुओंके लिए अभिमत जो श्रुत है वही सुश्रुत है यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए। ..
आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसार ( ३।३२-३३ ) में लिखा है कि साधु वही है जिसका मन एकाग्र है और एकाग्र मन वही हो सकता है जिसको आत्मतत्त्वका निश्चय है । यह निश्चय आगमसे होता है। अतः आगमके अभ्यासमें लगना ही सर्वोत्कृष्ट है। साधुके लिए स्व-परका ज्ञान तथा परमात्माका ज्ञान आवश्यक है अतः उसे ऐसे ही द्रव्यश्रुतका
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