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________________ ५४० धर्मामृत ( अनगार) परायं-प्रधानम् । यथाह 'एसो पंच णमोकारो' इत्यादि। परमपुरुषमन्त्र:-पञ्चत्रिशदक्षरोपराजितमन्त्रः। मलं गालयति ३ मङ्गं च लाति ददातीति मङ्गलशब्दस्य व्युत्पादनात् नतपस्या-स्वाध्यायारभ्यं तपः । अनुत्तरापरमा । यथाह 'स्वाध्यायः परमस्तावज्जपः पञ्चनमस्कृतेः । पठनं वा जिनेन्द्रोक्तशास्त्रस्यैकाग्रचेतसा ॥' [ तत्त्वानु. ८० ] ॥११॥ अथाशीःशान्त्यादिवचनरूपस्यापि मङ्गलस्याहव्याननिष्ठस्य श्रेयस्करत्वं कथयति अर्हद्ध्यानपरस्याहंन शं वो दिश्यात् सदास्तु वः। शान्तिरित्यादिरूपोऽपि स्वाध्यायः श्रेयसे मतः ॥१२॥ शान्तिः । तल्लक्षणं यथा 'सुखतद्धेतुसंप्राप्तिर्दुःखत तुवारणम् । तद्धेतुहेतवश्चान्यदपीदृक् शान्तिरिष्यते ।।' [ ] इत्यादि जयवादादि ।।९२॥ इच्छुक सत्पुरुष मंगल कहते हैं। पंचनमस्कार मन्त्रकी वाचनिक या मानसिक जपसे समस्त संचित पापका नाश होता है और आगामी पापका निरोध होता है तथा सांसारिक ऐश्वर्य और मोक्षसुखकी भी प्राप्ति होती है इसीलिए इसे मंगलोंमें भी परम मंगल कहा है। आप्तपरीक्षाके प्रारम्भमें स्वामी विद्यानन्दने परमेष्ठीके गुणस्तवनको परम्परासे मंगल कहा है क्योंकि परमेष्ठीके गुणोंके स्तवनसे आत्मविशुद्धि होती है। उससे धर्मविशेषकी उत्पत्ति और अधर्मका प्रध्वंस होता है । पंचनमस्कार मन्त्रमें पंचपरमेष्ठीको ही नमस्कार किया गया है। उस मन्त्रका जप करनेसे पापका विनाश होता है और पुण्यकी उत्पत्ति होती है। पापोंका नाश करनेके कारण ही इसे प्रधान मंगल कहा है। कहा है-यह पंचनमस्कार मन्त्र सब पापोंका नाशक है और सब मंगलोंमें प्रथम मंगल है। इसके साथ नमस्कार मन्त्रका जाप करना स्वाध्याय भी है। कहा भी है-'पंचनमस्कार मन्त्रका जप अथवा एकाग्रचित्तसे जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा प्रतिपादित शास्त्रका पढ़ना परम स्वाध्याय है।९शा आगे कहते हैं कि अर्हन्तके ध्यानमें तत्पर मुमुक्षुका आशीर्वाद रूप और शान्ति आदि रूप मंगल वचन कल्याणकारी होता है जो साधु प्रधान रूपसे अर्हन्तके ध्यानमें तत्पर रहता है उसके 'अर्हन्त तुम्हारा कल्याण करें' या तुम्हें सदा शान्ति प्राप्त हो, इत्यादि रूप भी स्वाध्याय कल्याणकारी मानी गयी है ॥२२॥ विशेषार्थ-'भी' शब्द बतलाता है कि केवल वाचना आदि रूप स्वाध्याय ही कल्याणकारी नहीं है किन्तु जो साधु निरन्तर अर्हन्तके ध्यानमें लीन रहता है उसके आशीर्वाद रूप वचन, शान्तिपरक वचन और जयवादरूप वचन भी स्वाध्याय है । शान्तिका लक्षण इस प्रकार है-सुख और उसके कारणोंकी सम्यक् प्राप्ति तथा दुःख और उसके कारणोंका निवारण तथा इसी तरह सुखके कारणोंके भी कारणोंकी प्राप्ति और दुःखके कारणोंके भी कारणोंकी निवृत्तिको शान्ति कहते हैं। अर्थात् जिन वचनोंसे सुख और उसके कारण तथा कारणोंके भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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