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________________ ५३२ धर्मामृत (अनगार) कल्पज्ञत्वं च । क्षेप्यः-कुत्स्यो व्यपोह्यो वा । जगदित्यादि-विनये हि वर्तमानो विश्वनाथाज्ञापरायत्तः स्यात् ॥७७॥ अथ निर्वचन (-लक्षित-) लक्षणे वैयावृत्ये तपसि मुमुक्षु प्रयुक्त क्लेशसंक्लेशनाशायाचार्यादिदशकस्य यः । व्यावृत्तस्तस्य यत्कर्म तद्वैयावृत्यमाचरेत् ॥७॥ क्लेश:-कायपीडा। संक्लेशः-दुष्परिणामः। आचार्यादिदशकस्य-आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लान-गण-कुल-संघ-साधु-मनोज्ञानाम् । आचरन्ति यस्माद् व्रतानीत्याचार्यः । मोक्षार्थ शास्त्रमुपेत्य यस्मादधीयत इति उपाध्यायः । महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी। शिक्षाशील: शैक्षः। रुजा क्लिष्टशरीरो ग्लानः । ९ स्थविरसन्ततिः गणः । दीक्षकाचार्यशिष्यसंस्त्यायस्त्रीपुरुषसंतानरूपः कुलम् । चातुर्वर्ण्यश्रमण निवहः संघः । चिरप्रवजित: साधुः । लोकसंमतो मनोज्ञः ॥७८॥ अथ वैयावृत्यफलमाहमुक्त्युद्युक्तगुणानुरक्तहृदयो यां कांचिदप्यापदं तेषां तत्पथघातिनी स्ववदवस्यन्योऽङ्गवृत्याऽथवा। योग्यद्रव्यनियोजनेन शमयत्युद्घोपदेशेन वा मिथ्यात्वादिविषं विकर्षति स खल्वाहंन्त्यमप्यर्हति ॥७९॥ आज्ञाके पराधीन हो जाता है तो इसीसे सिद्ध है कि विनयको अवश्य करना चाहिए। अर्थात् त्रिलोकीनाथकी आज्ञाके अधीन होना ही विनयके महत्त्वको बतलाता है ॥७॥ वैयावृत्य तपका निरुक्ति सिद्ध लक्षण बतलाते हुए ग्रन्थकार मुमुक्षुओंको उसके पालनके लिए प्रेरित करते हैं आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकारके मुनियोंके क्लेश अर्थात् शारीरिक पीड़ा और संक्लेश अर्थात् आर्त रौद्ररूप दुष्परिणामोंका नाश करने के लिए प्रवृत्त साधु या श्रावक जो कर्म-मन, वचन और कायका व्यापार करता है वह वैयावृत्य है, उसे करना चाहिए ।७८॥ _ विशेषार्थ-व्यावृत्तके भावको वैयावत्य कहते हैं अर्थात् उक्त दस प्रकारके साधुओंके कायिक क्लेश और मानसिक संक्लेशको दूर करने में जो प्रवृत्त होता है, उसका कर्म वैयावृत्य कहाता है। जिनसे मुनि व्रत लेते हैं वे आचार्य होते हैं। जिन मुनियोंके पास जाकर साधु आत्मकल्याणके लिए अध्ययन करते हैं वे उपाध्याय कहलाते हैं। महोपवास आदि करनेवाले साधु तपस्वी कहलाते हैं। नये दीक्षित साधुओंको शैक्ष कहते हैं। जिनके रोग है उन्हें ग्लान कहते हैं। स्थविर साधओंकी परम्पराको गण कहते हैं। दीक्षा देनेवाले आचार्यकी शिष्य परम्पराको कुल कहते हैं। चार प्रकारके मुनियोंके समूहको संघ कहते हैं। जिस साधुको दीक्षा लिये बहुत काल बीत गया है उसे साधु कहते हैं। और जो लोकमान्य साधु हो उसे मनोज्ञ कहते हैं। इन दस प्रकारके साधुओंका वैयावृत्य करना चाहिए ।।७८॥ वैयावृत्यका फल कहते हैं जिस साधु या श्रावकका हृदय मुक्तिके लिए तत्पर साधुओंके गुणोंमें आसक्त है और जो इसीलिए उन साधुओंपर मुक्तिमार्गको घात करनेवाली दैवी, मानुषी, तैरश्ची अथवा शरीरमे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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