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________________ ५२० धर्मामृत ( अनगार) अथ छेदं निर्दिशति चिरप्रवजितादृप्तशक्तशरस्य सागसः। दिनपक्षादिना दीक्षाहापनं छेदमादिशेत् ॥५४॥ स्पष्टम् ॥५४॥ अथ मूललक्षणमाह मलं पाश्वस्थसंसक्तस्वच्छन्देष्ववसन्नके। कुशीले च पुनःक्षादानं पर्यायवर्जनात् ॥५५॥ पार्श्वस्थ:-यो वसतिष प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी वा श्रमणानां पावें तिष्ठति । उक्तं च - 'वसदीसु अ पडिबद्धो अहवा उवकरणकारओ भणिओ। पासत्थो समणाणं पासत्थो णाम सो होई॥' [ संसक्त:-यो वैद्यकमन्त्रज्योतिषोपजीवी राजादिसेवकश्च स्यात् । उक्तं च 'वेज्जेण व मंतेण व जोइसकसलत्तणेण पडिबद्धो। रायादी सेवंतो संसत्तो णाम सो होई ॥[ स्वच्छन्दः-यस्त्यक्तगुरुकुल: एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूपको मगचारित्र इति यावत् । १५ उक्तं च 'आयरियकुलं मुच्चा विहरदि एगागिणो य जो समणो। जिणवयणं णिदंतो सच्छंदो होई मिगचारी ॥' [ प्रायश्चित्त है। थूकने या पेशाब आदि करनेपर कायोत्सर्ग किया ही जाता है ।।५३॥ छेद प्रायश्चितको कहते हैं जो साधु चिरकालसे दीक्षित है, निर्मद है, समर्थ है और शूर है उससे यदि अपराध हो जाये तो दिन, पक्ष या मास आदिका विभाग करके दीक्षा छेद देनेको छेद प्रायश्चित्त कहते हैं । अर्थात् उसकी दीक्षाके समयमें कसी कर दी जाती है। जैसे पाँच वर्ष के दीक्षितको चार वर्षका दीक्षित मानना ॥५४॥ मूल प्रायश्चित्तका लक्षण कहते हैं पार्श्वस्थ, संसक्त, स्वच्छन्द, अवसन्न और कुशील मुनियोंको अपरिमित अपराध होनेसे पूरी दीक्षा छेदकर पुनः दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है ।।५५।। विशेषार्थ-इनका लक्षण इस प्रकार है-जो मुनियोंकी वसतिकाओंके समीपमें रहता है, उपकरणोंसे आजीविका करता है उसे श्रमणोंके पासमें रहनेसे पासत्थ या पाश्वस्थ कहते हैं । व्यवहारसूत्र (श्वे.) के प्रथम उद्देश में इसे तीन नाम दिये हैं-पावस्थ, प्रास्वस्थ और पाशस्थ । दर्शन ज्ञान और चारित्रके पास में रहता है किन्तु उसमें संलग्न नहीं होता इसलिए उसे पार्श्वस्थ कहते हैं। और 'प्र' अर्थात् प्रकर्षसे ज्ञानादिमें निरुद्यमी होकर रहता है इसलिए प्रास्वस्थ कहते हैं । तथा पाश बन्धनको कहते हैं। मिथ्यात्व आदि बन्धके कारण होनेसे पाश है। उनमें रहनेसे उसे पाशत्थ कहते हैं। भगवती आराधना (गा. १३००) में कहा है कि १. ज्ञानादीनां पार्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थ इति व्युत्पत्तेः । २. प्रकर्षण समन्तात् ज्ञानादिषु निरुद्यमतगा स्वस्थः प्रास्वस्थ इति व्युत्पत्तेः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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