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सप्तम अध्याय
५१७
अथ प्रतिक्रमणलक्षणमाह
मिथ्या से दुष्कृतमिति प्रायोऽपानिराकृतिः।
कृतस्य संवेगवता प्रतिक्रमणमागसः ॥४७॥ उक्तं च-आस्थितानां योगानां धर्मकथादिव्याक्षेपहेतुसन्निधानेन विस्मरणे सति पुनरनुष्ठायकस्य संवेगनिर्वेदपरस्य गुरुविरहितस्याल्पापराधस्य पुनर्न करोमि मिथ्या मे दुष्कृतमित्येवमादिभिर्दोषान्निवर्तनं प्रतिक्रमणमिति ॥४७॥ अथ तदुभयं लक्षयति
'दुःस्वप्नादिकृतं दोषं निराकतु क्रियेत यत् ।
आलोचनप्रतिक्रान्तिद्वयं तदुभयं तु तत् ॥४८॥ स्पष्टम् । किं च, आलोचनं प्रतिक्रमणपूर्वकं गुरुणाऽभ्यनुज्ञातं शिष्येणव कर्तव्यं तदुभयं गुरुणवानुष्ठेयम् ॥४८॥
इस प्रकार आलोचना तपका कथन हुआ। अब प्रतिक्रमण को कहते हैं
संसारसे भयभीत और भोगोंसे विरक्त साधुके द्वारा किये गये अपराधको 'मेरे दुष्कृत मिथ्या हो जायें, मेरे पाप शान्त हों' इस प्रकारके उपायोंके द्वारा दूर करनेको प्रतिक्रमण कहते हैं ॥४७॥
विशेषार्थ---धर्मकथा आदिमें लग जानेसे यदि प्रतिज्ञात ध्यान आदि करना भूल जाये और पुनः करे तो संवेग और निर्वेदमें तत्पर अल्प अपराधी उस साधुका गुरुके अभावमें 'मैं ऐसी गलती पुनः नहीं करूँगा, मेरा दुष्कृत मिथ्या हो', इत्यादि उपायोंसे जो दोषका निवर्तन करना है वह प्रतिक्रमण है। किन्हींका ऐसा कहना है कि दोषोंका उच्चारण कर-करके 'मेरा यह दोष मिथ्या हो' इस प्रकारसे जो उस दोषका स्पष्ट प्रतीकार किया जाता है वह प्रतिक्रमण है। यह प्रतिक्रमण आचार्यकी अनुज्ञा प्राप्त करके शिष्यको ही करना चाहिए ॥४७॥
तदुभय प्रायश्चित्तका स्वरूप कहते हैं
खोटे स्वप्न, संक्लेश आदिसे होनेवाले दोषका निराकरण करनेके लिए जो आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं उसे तदुभय कहते हैं ॥४८॥
विशेषार्थ-आशय यह है कि किन्हीं दोषोंका शोधन तो आलोचना मात्रसे हो जाता है और कुछका प्रतिक्रमणसे । किन्तु कुछ महान् दोष ऐसे होते हैं जो आलोचना और प्रतिक्रमण दोनोंसे शुद्ध होते हैं जैसे दुःस्वप्न होना या खोटा चिन्तन करना आदि। इस तदुभय प्रायश्चित्तके विषयमें एक शंका होती है कि शास्त्रमें कहा है कि आलोचनाके बिना कोई भी प्रायश्चित्त कार्यकारी नहीं है। फिर कहा है कि कुछ दोष केवल प्रतिक्रमणसे ही शुद्ध होते हैं यह तो परस्पर विरुद्ध कथन हुआ। यदि कहा जाता है कि प्रतिक्रमणके पहले आलोचना
१. 'स्यात्तदुभयमालोचना प्रतिक्रमणद्वयम् । दुःस्वप्नदुष्टचिन्तादिमहादोषसमाश्रयम् ।।
-आचारसार ६।४२ । 'एतच्चोभयं प्रायश्चित्तं सम्भ्रमभयातुरापत्सहसाऽनाभोगानात्मवशगतस्य दुष्टचिन्तितभाषणचेष्टावतश्च विहितम!-तत्त्वार्थ..टी. सिद्ध. गणि, ९।२२ ।
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