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________________ ४९८ धर्मामृत ( अनगार) परे त्वेवमाहुः 'उपावृत्तस्य दोषेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवजितः' [ ] ॥१२॥ अथानशनादीनां लक्षणमाह ओदनाद्यशनं स्वाद्यं ताम्बूलादि-जलादिकम् । पेयं खाद्यं त्वपूपाद्यं त्याज्यान्येतानि शक्तितः ॥१३॥ उक्तं च 'मुद्गौदनाद्यमशनं क्षीरजलाचं मतं जिनैः पेयम् । ताम्बूलदाडिमाद्यं स्वाद्यं खाद्यं त्वपूपाद्यम् ।।' अपि च 'प्राणानुग्राहि पानं स्यादशनं दमनं क्षुधः । खाद्यते यत्नतः खाद्यं स्वाद्यं स्वादोपलक्षितम् ॥' [ ] ॥१३॥ अथोपवासस्योत्तमादिभेदात् त्रिप्रकारस्यापि प्रचुरदुष्कृताशुनिर्जराङ्गत्वाद्यथाविधि-विधेयत्वमाह उपवासो वरो मध्यो जघन्यश्च त्रिधापि सः। कार्यो विरक्तविधिवद्बह्वागःक्षिप्रपाचनः ॥१४॥ आगः-पापम् ॥१४॥ लीन होना अर्थात् आत्मामें लीन होना। इसीको उपवास कहते है। कहा है-'जिसमें सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त होकर बसती हैं उसे विद्वान उपवास कहते हैं।' उसका अर्थ जो चार प्रकारके आहारका त्याग लिया जाता है, उसका कारण यह है कि आहार न मिलनेसे सब इन्द्रियाँ म्लान हो जाती हैं। वास्तव में तो इन्द्रियोंका उपवासी होना ही सच्चा उपवास है और इन्द्रियाँ तभी उपवासी कही जायेंगी जब वे अपने विषयको ग्रहण न करें उधरसे उदासीन रहें। उसीके लिए चारों प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है। अन्य धर्मों में उपवासकी निरुक्ति इस प्रकार की है-'दोषोंसे हटकर जो गुणोंके साथ बसना है उसे उपवास जानना चाहिए । उपवासमें समस्त भोगोंका त्याग होता है' ॥१२॥ अशन आदिका लक्षण कहते हैं भात-दाल आदि अशन है। पान-सुपारी आदि स्वाद्य है। जल, दूध आदि पेय है।' पूरी, लड्डू आदि खाद्य है। इनको शक्तिके अनुसार छोड़ना चाहिए ॥१३॥ विशेषार्थ-अन्यत्र पान आदिका स्वरूप इस प्रकार कहा है-'जो प्राणोंपर अनुग्रह करता है, उन्हें जीवन देता है वह पान या पेय है। जो भूखको मिटाता है वह अशन है। जो यत्नपूर्वक खाया जाता है वह खाद्य है और जो स्वादयुक्त होता है वह स्वाद्य है ।।१३।।' उत्तम आदिके भेदसे तीन प्रकारका भी उपवास प्रचुर पापोंकी शीघ्र निर्जरामें कारण है । अतः उसको विधिपूर्वक पालनेका उपदेश देते हैं उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीनों भी प्रकारका उपवास प्राणीसंयम और इन्द्रियसंयमके पालकोंको शास्त्रोक्त विधानके अनुसार करना चाहिए। क्योंकि वह शीघ्र ही बहुत-से पापोंकी निर्जराका कारण है ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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