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________________ ४८८ धर्मामृत ( अनगार) अथ प्रज्ञापरीषहमाह विद्याः समस्ता यदुपज्ञमस्ताः प्रवादिनो भूपसभेषु येन । प्रज्ञोमिजित् सोऽस्तु मदेन विप्रो गरुत्मता यद्वदखाद्यमानः ॥१०॥ यदुपज्ञं--यस्य उपज्ञा प्रथमोपदेशः । भूपसभेषु-बहुषु राजसभासु । विप्र इत्यादि--गरुडेन स्वमातृवाक्यान्निषादखादनावसरे तत्संबलितो मुखान्तर्गतो ब्राह्मणो यथा । तथा च माघकाव्यम्-- 'साध कथंचिदचितैः पिचुमन्दपत्रैरास्यान्तरालगतमाम्रदलं मदीयः। दासेरकः सपदि संवलितं निषादैविप्रं पुरा पतगराडिव निजंगाम ।।' ॥१०८॥ अथाज्ञानपरीषहजयमाह-- पूर्वेऽसिधन् येन किलाशु तन्मे चिरं तपोऽभ्यस्तवतोऽपि बोधः। नाद्यापि बोभोत्यपि तूच्यकेऽहं गौरित्यतोऽज्ञानरुजोऽपसर्पेत् ॥१०९॥ असिधन्--सिद्धाः । बोभोति--भृशं भवति । उच्यके--कुत्सितमुच्ये कुल्प्ये (?) अहं । गौः बलीवर्दो १२ लौकरिति शेषः ॥१०९॥ मेरी भक्ति नहीं करता, कोई मुझे आदरपूर्वक आसन नहीं देता, इससे तो विधर्मी ही उत्तम हैं जो अपने मूर्ख भी साधर्मीको सर्वज्ञके समान मानकर अपने धर्मकी प्रभावना करते हैं। प्राचीन कालमें व्यन्तर आदि देवता कठोर तप करनेवालोंकी सर्वप्रथम पूजा किया करते थे, यदि यह श्रुति मिथ्या नहीं है तो हमारे जैसे तपस्वियोंका भी ये साधर्मी क्यों अनादर करते हैं। जिनका चित्त इस प्रकारके विचारसे रहित होता है तथा जो मान और अपमानमें समभाव रखते हैं वे साधु सत्कार-पुरस्कारपरीषहके जेता होते हैं ।।१०७।। ____ आगे प्रज्ञापरीषहको कहते हैं जो अंग, पूर्व और प्रकीर्णकरूप समस्त विद्याओंका प्रथम उपदेष्टा है और जिसने अनेक राजसभाओं में प्रवादियोंको पराजित किया है फिर भी जो गरुड़के द्वारा न खाये जानेवाले ब्राह्मणकी तरह मदसे लिप्त नहीं होता वह साधु प्रज्ञापरीषहको जीतनेवाला है ॥१०८॥ विशेषार्थ-हिन्दू पुराणोंमें कथा है कि गरुड़ने अपनी माताके कहनेसे निषादोंको खाना शुरु किया तो साथमें कोई ब्राह्मण भी मुखमें चला गया, किन्तु गरुड़ने उसे नहीं खाया। इसी तरह मद सबको होता है किन्तु प्रज्ञापरीषहके जेता साधुको अपने ज्ञानका मद नहीं होता ।।१०८॥ अज्ञानपरीपहके जयको कहते हैं__ जिस तपके प्रभावसे पूर्वकालमें अनेक तपस्वी शीघ्र ही सिद्धिको प्राप्त हुए सुने जाते हैं उसी तपका चिरकालसे अभ्यास करते हुए भी मुझे आज तक भी ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। उल्टे मुझे लोग 'बैल' कहते हैं। इस प्रकारके अज्ञानपरीषहसे साधुको दूर रहना चाहिए ॥१०९॥ विशेषार्थ-सारांश यह है कि जो साधु 'यह मूर्ख है, पशुके समान कुछ भी नहीं जानता' इत्यादि तिरस्कारपूर्ण वचनोंको सहता है फिर भी निरन्तर अध्ययनमें लीन रहता है, मन, वचन, कायसे अशुभ चेष्टाएँ नहीं करता, महोपावास आदि करनेपर भी मेरे ज्ञानमें कोई अतिशय उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा मनमें नहीं विचारता । उस मुनिके अज्ञानपरीषहजय होता है ॥१०९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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