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धर्मामृत ( अनगार) अथालाभपरीषहं दर्शयतिनिसङ्गो बहुदेशचार्यनिलवन्मौनी विकायप्रती
कारोऽद्येदमिदं श्व इत्यविमृशन् ग्रामेऽस्तभिक्षः परे । बह्वोकः स्वपि बह्वहं मम परं लाभादलाभस्तपः
- स्यादित्यात्तधृतिः पुरोः स्मरयति स्मानिलाभं सहन् ॥१३॥ __ अविमुशन्-असंकल्पयन् । परे-तद्दिनभिक्षाविषयीकृतादन्यत्र । बह्वौकस्सु-बहुषु गृहेषु । बह्वहं-बहून्यपि दिनानि । पुरोः-आदिनाथस्य कर्मण्यत्र षष्ठी । स्मार्तान-स्मृतिः परमागमार्थोद्धारशास्त्रम्, तां विदन्ति अधीयते वा ये तान् ॥१०३॥ अथ रोगसहनमाहतपोमहिम्ना सहसा चिकित्सित
शक्तोऽपि रोगानतिदुस्सहानपि । १२
दुरन्तपापान्तविधित्सया सुधीः
___ स्वस्थोऽधिकुर्वीत सनत्कुमारवत् ॥१०४॥ तपोमहिम्ना-जल्लौषधिप्राप्त्याद्यनेकतपोविशेषद्धिलब्ध्या । अधिकुर्वीत-प्रसहेत् ॥१०४॥ परम्परामें याचनाका अर्थ है माँगना। क्योंकि साधुको वस्त्र, पात्र, अन्न और आश्रय, सब दूसरोंसे ही प्राप्त करना होता है अतः साधुको अवश्य ही याचना करनी चाहिए । यही याचनापरीषहजय है अर्थात् माँगनेकी परीषहको सहना। और माँगनेपर भी न मिले तो असन्तुष्ट नहीं होना अलाभपरीषहजय है । ( तत्त्वार्थ टी. सिद्ध ९-९) ॥१०२॥
अलाभपरीषहको बतलाते हैं
वायुकी तरह निःसंग और मौनपूर्वक बहुत-से देशोंमें विचरण करनेवाला साधु अपने शरीरकी परवाह नहीं करता, 'इस घर आज भिक्षा लूंगा और इस घर कल प्रातः भिक्षा लूँगा' ऐसा संकल्प नहीं करता। एक ग्राममें भिक्षा न मिलनेपर दूसरे ग्राम जानेके लिए उत्सुक नहीं होता । 'बहुत दिनों तक बहुतसे घरों में आहार मिलनेकी अपेक्षा न मिलना मेरे लिए उत्कृष्ट तप है' ऐसा विचारकर सन्तोष धारण करता है। अलाभपरीषहको सहन करनेवाला वह साधु परमागमसे उद्धृत शास्त्रोंको पढ़नेवालोंको भगवान आदिनाथका स्मरण कराता है अर्थात् जैसे भगवान आदिनाथने छह मास तक अलाभपरीषहको सहन किया था उसी तरह उक्त साधु भी सहन करता है ॥१०३।।
रोगपरीषहको कहते हैं
शरीर और आत्माको भिन्न माननेवाला साधु एक साथ हुए अत्यन्त दुःसह रोगोंका तपकी महिमासे प्राप्त ऋद्धियोंके द्वारा तत्काल इलाज करने में समर्थ होनेपर भी सनत्कुमार चक्रवर्तीकी तरह निराकुल होकर दुःखदायी पापकर्मोंका विनाश करनेकी इच्छासे सहता है ॥१०४॥
विशेषार्थ-सनत्कुमार चक्रवर्ती कामदेव थे। उन्हें अपने रूपका बड़ा मद था । दो देवताओंके द्वारा प्रबुद्ध होनेपर उन्होंने जिनदीक्षा ले ली। किन्तु उनके शरीर में कुष्ट रोग हो गया। देवताओंने पनः परीक्षा लेनेके लिए वैद्यका रूप धारण किया। किन्तु सनत्कुमार मुनिराजने उनकी उपेक्षा की और कुष्टरोगको धीरतापूर्वक सहा । यही रोगपरीषह सहन है ॥१०४॥
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