SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८४ धर्मामृत ( अनगार) अथ निषद्यापरीषहं लक्षयतिभीष्मश्मशानादिशिलातलादौ _ विद्यादिनाऽजन्यगदाधुदीर्णम् । शक्तोऽपि भङक्त स्थिरमडिपीडां त्यक्तु निषद्यासहनः समास्ते ॥९॥ स्मशानादि-प्रेतवनारण्य-शून्यायतन-गिरिगह्वरादि। विद्यादिना-विद्यामन्त्रौषधादिना । अजन्यंउपसर्गः। समास्ते-समाधिना तिष्ठति न चलति ॥९८॥ अथ शय्यापरीषहक्षमामुपदिशति शय्यापरीषहसहोऽस्मृतहंसतूल प्रायोऽविषादमचलनियमान्मुहूर्तम् । आवश्यकादिविधिखेदनुदे गुहादौ व्यस्रोपलादिशबले शववच्छयोत ॥१९॥ हंसतूलप्रायः-प्रायशब्देन दुकूलास्तरणादि। अविषाद-व्याघ्रादिसंकुलोऽयं प्रदेशोऽचिरादतो निर्गमनं श्रेयः, कदा तु रात्रिविरमतीति विषादाभावेन । नियमात-एकपाश्र्वदण्डायतादिशयनप्रतिज्ञातो। १५ व्यस्रोपलादिशबले--त्रिकोणपाषाणशर्कराकर्पराद्याकीर्णे। शववत्-परिवर्तनरहितत्वात् मृतकेन तुल्यम् ॥९९॥ अथाक्रोशपरीषहजिष्णुं व्याचष्टेनिषद्यापरीषहका स्वरूप कहते हैं भयंकर श्मशान, वन, शून्यघर और पहाड़की गुफा आदिमें पत्थरकी शिला आदिपर बैठकर ध्यान करते समय उत्पन्न हुई व्याधि या उपसर्ग आदिको विद्या मन्त्र आदिके द्वारा दूर करनेकी शक्ति होते हुए भी प्राणियोंको पीड़ासे बचाने के लिए स्थिर ही बैठा रहता है, उस मुनिको निषद्यापरीषहका सहन करनेवाला जानना ।।९८॥ शय्यापरीषहको सहन करनेका उपदेश देते हैं शय्यापरीषहको सहन करनेवाले साधुको छह आवश्यक कर्म और स्वाध्याय आदिके करनेसे उत्पन्न हुए थकानको दूर करनेके लिए, तिकोने पाषाण, कंकर-पत्थरसे व्याप्त गुफा वगैरह में बिना किसी प्रकारके विषादके एक मूहूर्त तक मुरदेकी तरह सोना चाहिए। तथा एक' करवटसे दण्डकी तरह सीधे सोने आदिके नियमासे विचलित नहीं होना चा गृहस्थ अवस्थामें उपयुक्त कोमल रुईके गद्दे आदिका स्मरण नहीं करना चाहिए ॥१९॥ विशेषार्थ-साधुको रात्रिमें दिन-भर संयमकी आराधनासे हुई थकान दूर करनेके लिए भूमिपर एक करवटसे या सीधे पैर फैलाकर एक मुहूर्त तक निद्रा लेनेका विधान है । न तो वह करवट ले सकता है और न घुटने पेट में देकर सुकड़कर सो सकता है। सोते हुए न तो वह गृहस्थावस्थामें उपयुक्त कोमल शय्या आदिका स्मरण करता है और न यही सोचता है कि यह रात कब बीतेगी, कैसे यहांसे छुटकारा होगा आदि। इस प्रकार शास्त्रविहित शयनके कष्टको सहन करना शय्यापरीषहजय है ।।९९।। __ आक्रोशपरीषहको जीतनेवालेका स्वरूप कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy