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________________ षष्ठ अध्याय ४७७ अथ बालव्युत्पत्त्यर्थं पुनस्तत्सामान्यलक्षणं प्रपञ्चयति शारीरमानसोत्कृष्टबाधहेतून् क्षुदादिकान् । प्राहुरन्तर्बहिर्द्रव्य-परिणामान् परीषहान् ॥८४॥ अन्तरित्यादि । क्षुदादयोऽन्तर्द्रव्यपरिणामाः शीतोष्णादयो बहिर्द्रव्यपरिणामा इति यथासंभवं योज्यम् ॥८४॥ अथ कालत्रयेऽपि कार्यारम्भस्य सर्वेषां सप्रत्यवायत्वाद् विघ्नोपनिपातेऽपि श्रेयोऽथिभिः प्रारब्धयो- ६ मार्गान्तोपसर्तव्यमिति शिक्षार्थमाह स कोऽपि किल नेहाभून्नास्ति नो वा भविष्यति । यस्य कार्यमविघ्नं स्यान्यक्कार्यो हि विधेः पुमान् ॥८५॥ किल-शास्त्रे लोके च श्रूयते । शास्त्रे यथा-'स कि कोऽपीहाभूदस्ति भविष्यति वा यस्य निष्प्रत्यवायः कार्यारम्भः' इति । लोके यथा-श्रेयांसि बहविघ्नानीत्यादि । न्यक्कार्य:-अभिभवनीयः । ततो विघ्ननिघ्नीभूय ११ प्रेक्षापूर्वकारिभिः न जातु प्रारब्धं श्रेयः साधनमुज्झितव्यम् । यद्बाह्या अप्याहुः 'प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति ॥' .[ नीतिशतक ७२ ] ॥८५॥ अल्प बुद्धिवालोंको समझाने के लिए परीषहका सामान्य लक्षण फिरसे कहते हैं अन्तर्द्रव्य जीवके और बहिर्द्रव्य पुद्गलके परिणाम भूख आदिको, जो शारीरिक और मानसिक उत्कृष्ट पीड़ाके कारण हैं, उन्हें आचार्य परीषह कहते हैं ॥८४॥ विशेषार्थ-परीषह जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं जो जीवकी शारीरिक और मानसिक पीड़ाके कारण हैं। जैसे भूख और प्यास जीवके परिणाम हैं और सर्दी-गर्मी पुद्गलके परिणाम हैं। इसी तरह अन्य परीषहोंके सम्बन्धमें भी जान लेना चाहिए । ये जीवको दुःखदायक होते हैं । इन्हें ही परीषह कहते हैं ॥८४॥ आगे शिक्षा देते हैं कि सदा ही कार्य प्रारम्भ करनेपर सभीको विघ्न आते हैं । इसलिए विघ्न आनेपर भी कल्याणके इच्छुक मनुष्योंको प्रारम्भ किये गये कल्याण-मार्गसे हटना नहीं चाहिए तीनों लोकोंमें ऐसा कोई भी न हुआ, न है और न होगा, जिसके कार्य में विघ्न न आये हों और कार्य निर्विघ्न हुआ हो। क्योंकि दैव पुरुषका तिरस्कार किया ही करता है ॥८५।। विशेषार्थ-शास्त्रमें और लोकमें भी ऐसा ही सुना जाता है। शास्त्रमें कहा है इस लोकमें क्या कोई भी ऐसा मनुष्य हुआ, या है, या होगा जिसके कायके आरम्भ में विघ्न न आये हों। लोकमें भी सुना जाता है १. 'स कि कोऽपीहाभूदस्ति भविष्यति वा बन्धयस्याप्रत्यवायः कार्यारम्भः।' २. 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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