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________________ ९ १२ षष्ठ अध्याय ४५३ बहुविघ्नेऽपि शिवाध्वनि यन्निघ्नधियश्चरन्त्यमन्दमदः । ताः प्रयतेः संचिन्त्या नित्यमनित्यायनुप्रेक्षाः ॥५॥ स्पष्टम् ॥५७॥ अथायुःकायेन्द्रियबलयौवनानां क्षणभङ्गुरत्वचिन्तनान्मोहोपमर्दमुपदिशति चुलुकजलवदायुः सिन्धुवेलावदङ्ग, करणबलममित्रप्रेमवद्यौवनं च । स्फुटकुसुमवदेतत् प्रक्षयैकव्रतस्थं, क्वचिदपि विमृशन्तः किं नु मुह्यन्ति सन्तः ॥५८॥ चुलुकजलवत्-प्रतिक्षणगलद्रूपत्वात् । सिन्धुवेलावत्-आरोहावरोहवत्त्वात् । अमित्रप्रेमवत्- युक्तोपचारेऽपि व्यभिचारप्रकाशनात् । स्फुटकुसुमवत्-सद्योविकारित्वात् । एतत्-आयुरादिचतुष्टयम् । प्रक्षयैकव्रतस्थं-अवश्यंभाविनिर्मूलप्रलयम् । क्वचिदपि-आयुरादीनां लक्षम्यादीनां च मध्ये एकस्मिन्नप्यर्थे । मुह्यन्ति-अनित्यताज्ञानहीना ममत्वाधीना वा भवन्ति ॥५८॥ यद्यपि मोक्षके मार्गमें बहुत बाधाएँ हैं। फिर भी जिन अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनमें व्यस्त मुमुक्षु अति आनन्दपूर्वक मोक्षमार्गमें विहार करते हैं, प्रयत्नशील मुमुक्षुओंको उन अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओंका सतत चिन्तन करना चाहिए ।।५।। विशेषार्थ-स्थिर चित्तसे शरीर आदिके स्वरूपके चिन्तनको अनुप्रेक्षा कहते हैं। अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व. अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये बारह अनुप्रेक्षा हैं । मुमुक्षुको इनका सदा चिन्तन करना चाहिए। इससे मोक्षके मार्गमें आनेवाले विघ्न दूर होते हैं। मनको शान्ति मिलती है और सांसारिकतासे आसक्ति हटती है ॥५॥ ___आगे उपदेश करते हैं कि आयु, शरीर, इन्द्रिय, बल और यौवनकी क्षणभंगुरताका विचार करनेसे मोहका मर्दन होता है आयु चुल्लूमें भरे जलके समान है, शरीर समुद्रके किनारेके तुल्य है, इन्द्रियोंकी अर्थग्रहण शक्ति शत्रुके प्रेमके तुल्य है, यौवन तत्काल खिले हुए पुष्पके समान है। इस तरह ये चारों विनाशशील हैं । इनका विचार करनेवाले सन्त पुरुष क्या किसीमें भी मोह कर सकते हैं, अर्थात् नहीं कर सकते ॥५८॥ विशेषार्थ-जैसे चुल्लू में भरा जल प्रतिक्षण चूता है, उसी तरह भवधारणमें निमित्त आयुकर्म भी प्रतिक्षण क्षीण होता रहता है। जैसे लवणसमुद्रका जल जहाँ तक ऊपर उठ सकता है उठता है फिर जहाँ तक नीचे जा सकता है जाता है, उसी तरह यह शरीर जब तक बढ़ने योग्य होता है बढ़ता है फिर क्रमशः क्षीण होता है। कहा है-'सोलह वर्ष तककी अवस्था बाल्यावस्था कही जाती है। उसमें धातु, इन्द्रिय और ओजकी वृद्धि होती है। ७० वर्षकी उम्र के बाद वृद्धि नहीं होती, किन्तु क्षय होता है।' इन्द्रियोंका बल पदार्थोंको ग्रहण करनेकी शक्ति है। वह शत्रुके प्रेमके समान है। जैसे उचित उपचार करनेपर भी शत्रुका स्नेह समय पाकर टूट जाता है वैसे ही योग्य आहार-विहार आदि करनेपर भी इन्द्रियोंकी १. 'वयस्त्वा षोडशाबाल्यं तत्र धात्विन्द्रियोजसाम् । वृद्धिरासप्ततेमध्यं तत्रावृद्धिः परं क्षयः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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