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धर्मामृत ( अनगार) अथ व्रतादित्रयविषयस्य सत्यस्य लक्षणविभागार्थमाह
असत्यविरतौ सत्यं सत्स्वसत्स्वपि यन्मतम् ।
वाक्समित्यां मितं तद्धि धर्मे सत्स्वेव बह्वपि ॥३६।। यत् । बह्वपीति सामल्लिब्धम् ॥३६॥ भावी सब पर्यायोंको अपने में समाये हुए है अर्थात् स्वभावसे सर्वज्ञ सर्वदर्शी है। आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है-'सभी द्रव्य त्रिकालवर्ती हैं। उनकी क्रमसे होनेवाली और जो हो चुकी हैं तथा आगे होंगी, वे सभी विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें वर्तमान पर्यायोंकी तरह ही, परस्परमें हिली-मिली होनेपर भी अपने-अपने निर्धारित विशेष लक्षणके साथ एक ही समयमें केवलज्ञानके द्वारा जानी जाती हैं।' ऐसे आत्मरूपकी ओर जो प्रयत्नशील होते हैं वे ही सन्त हैं और जो वचन उन्हें उस रूप होने में सहायक होते हैं वे सत्य वचन हैं। घोर अज्ञानमें पड़े हुए अज्ञानी जनोंको ऐसे सत्य वचन तबतक श्रवण करना चाहिए जबतक उनका अज्ञान दूर न हो ॥३५॥
आगममें सत्य महाव्रत, भाषा समिति और सत्यधर्म इस प्रकार सत्यके तीन रूप मिलते हैं, इनमें अन्तर बतलाते हैं
असत्यविरति नामक महाव्रतमें ऊपर कहे गये सत्पुरुषोंमें और उनसे विपरीत असत्पुरुषोंमें भी बहुत बोलना भी सत्यमहाव्रत माना है। भाषा समितिमें सत् या असत् पुरुषोंमें परिमित वचन बोलना सत्य है। और सत्यधर्ममें सत्पुरुषों में ही बहुत बोलना भी सत्य है। अर्थात् सत् और असत्पुरुषों में बहुत बोलना भी सत्यव्रत है। सत् और असत् पुरुषोंमें परिमित बोलना समिति सत्य है। और सन्त पुरुषोंमें ही अधिक या कम बोलना धर्मसत्य है ॥३६॥
विशेषार्थ-पूज्यपाद स्वामीने सत्यधर्म और भाषा समितिके स्वरूप में अन्तर इस प्रकार कहा है-'सन्त अर्थात् प्रशंसनीय मनुष्योंमें साधु वचनको सत्य कहते हैं। शंका-तब तो सत्यधर्मका अन्तर्भाव भाषा समितिमें होता है। समाधान-नहीं, क्योंकि भाषा समितिके पालक मुनिको साधु और असाधु जनोंमें वचन व्यवहार करते हुए हित
और मित बोलना चाहिए, अन्यथा रागवश अधिक बोलनेसे अनर्थदण्ड दोष लगता है, यह भाषा समिति है। और सत्यधर्म में सन्त साधुजनोंमें अथवा उनके भक्तोंमें ज्ञान, चारित्र आदिका उपदेश देते हुए धर्मकी वृद्धिके लिए बहुत भी बोला जा सकता है ऐसी अनुज्ञा है' ॥३६॥
१. 'तक्कालिगेव सव्वे सदसद्भूदा हि पज्जया तासि ।
वदन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं' ॥-प्रवचनसार, ३७ गा.। 'सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यमित्युच्यते । ननु चैतद् भाषासमितावन्तर्भवति ? नैष दोषःसमिती वर्तमानो मुनि साधुष्वसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितञ्च ब्रूयात, अन्यथा रागादनर्थदण्डदोषः स्यादिति वाक्समितिरित्यर्थः। इह पुनः सन्तः प्रव्रजितास्तभक्ता वा एतेष साधु सत्यं ज्ञानचारित्रलक्षणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते धर्मोपबृंहणार्थम् । सर्वार्थसिद्धि ९।६ ।
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