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षष्ठ अध्याय
४२७
अथ मायाविनो लोकेऽत्यन्तमविश्वास्यतां प्रकाशयति
यो वाचा स्वमपि स्वान्तं वाचं वञ्चयतेऽनिशम् ।
चेष्टया च स विश्वास्यो मायावी कस्य धीमतः ॥१९॥ य इत्यादि । यन्मनस्यस्ति तन्न वदति, यच्च वक्ति तन्न कायेन व्यवहरतीति भावः ॥१९॥ अथार्जवशीलानां सम्प्रति दुर्लभत्वमाह
चित्तमन्वेति वाग येषां वाचमन्वेति च क्रिया। - स्वपरानुग्रहपराः सन्तस्ते विरलाः कलौ ॥२०॥ अन्वेति-अनुवर्तते ॥२०॥ अथार्जवशीलानां माहात्म्यमाह
आर्जवस्फूर्जदूर्जस्काः सन्तः केऽपि जयन्ति ते।
ये निगोणंत्रिलोकायाः कृन्तन्ति निकृतमनः ॥२१॥ ऊर्ज-उत्साहः ॥२१॥ अथार्जवनिजितदुर्जयमायाकषायाणां मुक्तिवर्त्मनि निष्प्रतिबन्धा प्रवृत्तिः स्यादित्युपदिशति
दुस्तरार्जवनावा यैस्तीर्णा मायातरङ्गिणी।
इष्टस्थानगतो तेषां कः शिखण्डी भविष्यति ॥२२॥ शिखण्डी-विघ्नः ॥२२॥ अथ मायाया दुर्गतिक्लेशावेशदुस्सह-गर्हानिबन्धनत्वमुदाहरणद्वारेण प्रणिगदति
मायावीका लोकमें किंचित् भी विश्वास नहीं किया जाता, इस बातको प्रकाशित करते हैं
जो मायावी अपने ही मनको अपने वचनोंसे और अपने वचनोंको शारीरिक व्यापारसे रात-दिन ठगा करता है क्योंकि जो मनमें है वह कहता नहीं है और जो कहता है वह करता नहीं है-उसका विश्वास कौन समझदार कर सकता है ।।१९।।
इस समय सरल स्वभावियोंकी दुर्लभता बतलाते हैं
जिनके वचन मनके अनुरूप होते हैं और जिनकी चेष्टा वचनके अनुरूप होती है अर्थात् जैसा मनमें विचार करते हैं वैसा बोलते हैं और जो कहते हैं वही करते हैं, ऐसे अपने और दूसरोंके उपकारमें तत्पर साधु इस कलि कालमें बहुत स्वल्प हैं ।।२०।।
सरल स्वभावियोंका माहात्म्य बतलाते हैं
जो तीनों लोकोंको अपने उदर में रखनेवाली अर्थात् तीनों लोकोंको जीतनेवाली मायाके हृदयको भी विदीर्ण कर देते हैं, वे सरल स्वभावी उत्साही लोकोत्तर साधु जयशील होते है, उनका पद सबसे उत्कृष्ट होता है ।।२१।।
आगे कहते हैं कि आर्जव धर्मसे दुर्जय माया कषायको जीतनेवालोंको मोक्षमार्गमें बेरोक प्रवृत्ति होती है
जिन्होंने आर्जव धर्मरूपी नावके द्वारा दुस्तर मायारूपी नदीको पार कर लिया है उनके इष्ट स्थान तक पहुँचने में कौन बाधक हो सकता है ॥२२॥
. माया दुर्गतियोंके कष्ट और असह्य निन्दाका कारण है, यह बात उदाहरणके द्वारा बताते हैं
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