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षष्ठ अध्याय
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विरुध्यते । तत् आर्षे प्रसिद्धान् । एतेन सगरात् साक्षादसाक्षाच्च जाता सगरजा इति पुत्रवत् पौत्राणामप्यार्षाविरोधेन ग्रहणं लक्षयति । सौनन्द-सुनन्दाया अपत्यं बाहुबलिनम् । आदिराट-भरतः । शिवम् । तथा चोक्तं
'मार्दवोपेतं गुरवोऽनुगृह्णन्ति । साधवोऽपि साधु मन्यन्ते । ततश्च सम्यग्ज्ञानादीनां पात्रीभवति । अतश्च स्वर्गापवर्गफलावाप्तिरिति ॥'
[तत्त्वार्थवा., ९।६।२८ ] ॥१६॥ अथार्जवस्वभावं धर्म व्याकर्तुकामस्तदेकनिराकार्यां निकृतिमनुभावतोऽनुवदन्नाहक्रोधादीनसतोऽपि भासयति या सद्वत सतोऽप्यर्थतो
सतहोषधियं गणेष्वपि गणश्रद्धां च दोषेष्वपि । या सूते सुधियोऽपि विभ्रमयते संवृण्वती यात्यणू
न्यप्यभ्यूहपदानि सा विजयते माया जगद्व्यापिनी ॥१७॥ सद्वत्-उद्भूतानिव । अर्थतः-प्रयोजनमाश्रित्य । अत्यनि-अतीव सूक्ष्माणि ॥१७॥ अथेहामत्र च मायायाः कुत्सा कृच्छकनिबन्धनत्वमवबोधयति
मार्गमें लगाया और स्वयं भी अपनेको अहंकारसे मुक्त करके कल्याणके मार्गमें लगे। उसी तरह दूसरोंको और स्वयंको भी अहंकारसे छुड़ाकर कल्याणके मार्गमें लगाना और लगना चाहिए। आगममें मादेवकी बड़ी प्रशंसा की गयी है। तत्त्वाथेवातिक (९।६।२८) में अकलंक देवने कहा है-'मार्दव भावनासे युक्त शिष्यपर गुरुओंकी कृपा रहती है। साधु भी उसे साधु मानते हैं। उससे वह सम्यग्ज्ञान आदिका पात्र होता है। सम्यग्ज्ञान आदिका पात्र 'होनेसे स्वर्ग और मोक्षरूप फलकी प्राप्ति होती है।' इस प्रकार उत्तम मार्दव भावनाका प्रकरण समाप्त हुआ ॥१६।।
अब आर्जव धर्मका कथन करनेकी इच्छासे उसके द्वारा निराकरणीय मायाचार की महिमा बतलाते हैं
- जो माया प्रयोजनवश क्रोध आदिके नहीं होते हुए भी क्रोधादि हैं ऐसी प्रतीति कराती है और क्रोध आदिके होते हुए भी क्रोधादि नहीं है ऐसी प्रतीति कराती है। तथा गुणोंमें भी दोष बुद्धि कराती है और दोषों में भी गुण बुद्धि कराती है। तथा जो अत्यन्त सूक्ष्म भी विचारणीय स्थानोंको ढाँकती हुई विद्या सम्पन्न बुद्धिमानोंको भी भ्रममें डाल देती है वह संसारव्यापी माया सर्वत्र विजयशील है ।।१७।।
विशेषार्थ-मनमें कुछ, वचनमें कुछ और कार्य कुछ इस प्रकार मन-वचन-कायकी कुटिलताका नाम माया है। यह माया संसारव्यापी है। इसके फन्देसे विरले
संसारव्यापी है। इसके फन्देसे विरले ही निर्मल हृदय पुरुष बचे हुए हैं। अन्यथा सर्वत्र उसका साम्राज्य है। मतलबी दुनिया अपना मतलब निकालनेके लिए इस मायाचारका खुलकर प्रयोग करती है। दुनियाको ठगनेके लिए दुर्जन भी सज्जनका बाना धारण करते हैं, चोर और डाकू साधु के.वेशमें घूमते हैं । बनावटी क्रोध करके भी लोग अपना काम निकालते हैं। जिससे काम नहीं निकलता उस गुणीको भी दोषी बतलाते हैं और जिससे काम निकलता है उस दोषीको भी गुणी बतलाते हैं । यह सब स्वार्थकी महिमा है और मायाचार उसका सहायक होता है ॥१७॥
यह माया इस लोक और परलोकमें एकमात्र दुःखका ही कारण है, यह बतलाते हैं
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