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षष्ठ अध्याय
अथ कोपस्यानर्थे कफलत्वं प्रकाश्य तज्जयोपायमाह -
कोपः कोऽग्निरन्तर्बहिरपि बहुधा निर्दहन् देहभाजः,
कोपः कोऽप्यन्धकारः सह दृशमुभयीं धीमतामप्युपघ्नन् । कोपः कोऽपि ग्रहोsस्तत्र पमुपजनयन् जन्मजन्माभ्यपायांarati लोप्तुमाप्तश्रुतिरसलंही सेव्यतां क्षान्तिदेवी ||४||
निर्दहन् - निष्प्रतीकारं भस्मीकुर्वन् माहात्म्योच्छेदात् । उभयी - चाक्षुषी मानसी वा । जन्मजन्माभि - भवे भवे । वीप्सायामभेः कर्मप्रवचनीयत्वात्तद्योगे द्वितीया । आप्तश्रुतिः - परमागमः ॥४॥
अथ उत्तमक्षमाया माहात्म्यं स्तोतुमाह
यः क्षाम्यति क्षमोऽप्याशु प्रतिकतं कृतागसः । कृत्तागसं तमिच्छन्ति क्षान्तिपीयूष संजुषः ॥५॥ कृतागसः - विहितापराधान् । कृत्तागसं - छिन्नपापम् ॥५॥ अथ क्षमाभावना विधिमाह -
प्राग्वस्मिन्वा विराध्यन्निममहमबुधः किल्विषं यद्बबन्ध,
क्रूरं तत्पारतन्त्र्याद् ध्रुवमयमधुना मां शपत्काममाध्नन् । निघ्नन्वा केन वार्यः प्रशमपरिणतस्याथवावश्यभोग्यं,
भोक्तुं मेऽद्यैव योग्यं तदिति वितनुतां सर्वथार्यस्तितिक्षाम् ॥ ६ ॥
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सर्व प्रथम क्रोधका एक मात्र अनर्थ फल बतलाकर उसको जीतनेका उपाय कहते हैं—
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उत्तम क्षमा माहात्म्यकी प्रशंसा करते हैं
जो अपराधियोंका तत्काल प्रतीकार करने में समर्थ होते हुए भी उन्हें क्षमा कर देता है, क्षमा रूपी अमृतका सम्यकू सेवन करनेवाले साधुजन उसे पापका नाशक कहते हैं ||५|| क्षमा भावनाकी विधि कहते हैं
मुझे अज्ञानीने इसी जन्म में या पूर्व जन्ममें इस जीवका अपकार करते हुए जो अवश्य भोग्य पाप कर्मका बन्ध किया था, उस कर्मकी परवशता के कारण यह अपकारकर्ता इस समय मुझे अपराधीको बहुत गाली देता है या चाबुकसे मारता है या मेरे प्राणका हरण करता है तो उसे कौन रोक सकता है । अथवा माध्यस्थ्य भावपूर्वक मुझे उस अवश्य भोग्य कर्मको इसी भव में भोगना योग्य है क्योंकि किया हुआ अच्छा या बुरा कर्म अवश्य भोगना होता है । इस प्रकार साधुको मन, वचन, कायसे क्षमाकी भावना करनी चाहिए ॥६॥
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प्राणियों के अन्तरंग और बाह्यको अनेक तरहसे ऐसा जलाता है कि उसका कोई प्रतीकार नहीं है । अतः क्रोध कोई एक अपूर्व अग्नि है; क्योंकि अग्नि तो बाह्यको ही जलाती है। किन्तु यह अन्तरंगको भी जलाता है । तथा बुद्धिमानोंकी भी चक्षु सम्बन्धी और मानसिक दोनों ही दृष्टियों का एक साथ उपघात करनेसे क्रोध कोई एक अपूर्व अन्धकार है; क्योंकि अन्धकार तो केवल बाह्य दृष्टिका ही उपघातक होता है । तथा जन्म-जन्म में निर्लज्ज होकर अनिष्टोंका करनेवाला होनेसे क्रोध कोई एक अपूर्व ग्रह या भूत है । क्योंकि भूत तो एक ही जन्म में अनिष्ट करता है। उस क्रोधका विनाश करनेके लिए क्षमा रूपी देवीकी आराधना करना चाहिए जो जिनागमके अर्थ और ज्ञानके उल्लासका कारण है || ४ ||
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