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________________ ४०२ धर्मामृत ( अनगार) अथ चतुर्दशमलानाह पूयास्रपलास्थ्यजिनं नखः कचमृतविकलत्रिके कन्दः । बीजं मूलफले कणकुण्डौ च मलाश्चतुर्दशान्नगताः ॥३९॥ पूर्व-व्रणक्लेदः। मृतविकलत्रिकं-निर्जीवद्वित्रिचतुरिन्द्रियत्रयम् । बीजं-प्ररोहयोग्यं यवादिकमिति टीकायाम, अकरितमिति टिप्पणके। कण:-यवगोधमादीनां बहिरवयव इति टोकायाम, तण्डलाहदीनि टिप्पणके । कुण्ड:-शाल्यादीनामभ्यन्तरसूक्ष्मावयवा इति टीकायाम्, बाह्ये पक्वोऽभ्यन्तरे चापक्व इति टिप्पणके । एते चाष्टविधपिण्डशुद्धावपठिता इति पृथगुक्ताः । उक्तं च 'णह-रोम-जंतु अट्ठी-कण-कुंडय-पूय-चम्म-रुहिर-मंसाणि । बीय-फल-कंद-मूला छिण्णाणि मला चउदसा हुंति ॥' [मूलाचार ६।६४ ] ॥३९॥ अथ पूयादिमलानां महन्मध्याल्पदोषत्वख्यापनार्थमाह पूयादिदोषे त्यक्त्वापि तदन्नं विधिवच्चरेत् । प्रायश्चित्तं नखे किंचित् केशादौ त्वन्नमुत्सृजेत् ॥४०॥ त्यक्त्वापिइत्यादि । महादोषत्वादित्यत्र हेतुः। किंचित्-त्यक्त्वाप्यन्नं प्रायश्चित्तं किंचिदल्पं कुर्यान्मध्यमदोषत्वादित्यर्थः । अन्नमुत्सृजेत्-न प्रायश्चित्तं चरेदल्पदोषत्वात् ॥४०॥ अथ कन्दादिषट्कस्याहारात् पृथक्करणतत्त्यागकरणत्वविधिमाह___ कन्वादिषट्कं त्यागाहमित्यन्नाद्विभजेन्मुनिः। न शक्यते विभक्तं चेत् त्यज्यतां तहि भोजनम् ॥४१॥ त्यागाह-परिहारयोग्यम् । विभजेत्-कथमप्यन्ते संसक्तं ततः पृथक्कुर्यात् ॥४१॥ इस प्रकार छियालीस पिण्ड दोषोंको कहकर उसके चौदह मलोंको बतलाते हैं पीव, रुधिर, मांस, हड्डी, चर्म, नख, केश, मरे हुए विकलत्रय-दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, कन्द, सूरण आदि, बीज-उगने योग्य जौ वगैरह या अंकुरित जौ वगैरह, मूलीआदी वगैरह, फल-वेर वगैरह, कण-गेहूँ वगैरहका बाह्य भाग या चावल वगैरह, कुण्डधान वगैरहका आभ्यन्तर सूक्ष्म अवयव, ये चौदह आहार सम्बन्धी मल हैं ॥३९॥ विशेषार्थ-भोजनके समय इनमें से कुछ वस्तुओंका दशन या स्पर्शन होनेपर कुछके भोजनमें आ जानेपर आहार छोड़ दिया जाता है। आठ प्रकारकी पिण्ड शुद्धिमें इनका कथन न होनेसे अलगसे इनका कथन किया है। पीव आदि मलोंमें महान् , मध्यम और अल्प दोष बतलाते हैं यदि खाया जानेवाला भोजन पीव, रुधिर, मांस, हड्डी और चर्मसे दूषित हुआ है तो यह महादोष है। अतः उस भोजनको छोड़ देनेपर भी प्रायश्चित्त शास्त्रमें कहे गये विधानके अनुसार प्रायश्चित्त लेना चाहिए । तथा नख दोषसे दूषित भोजनको त्याग देनेपर भी थोड़ा प्रायश्चित्त करना चाहिए। यह मध्यम दोष है। यदि भोजनमें केश या मरे हुए विकलेन्द्रिय जीव हों तो भोजन छोड़ देना चाहिए, प्रायश्चित्तकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह अल्प दोष है ॥४०॥ कन्द आदि छह दोषोंको आहारसे अलग करनेकी या भोजनको ही त्यागनेकी विधि कहते हैं कन्द, मूल, फल, बीज, कण और कुण्ड ये छह त्याज्य हैं तथा इन्हें भोजनसे अलग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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