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धर्मामृत ( अनगार) अथ निषिद्धं सभेदप्रभेदमाह
निषिद्धमीश्वरं भर्ना व्यक्ताव्यक्तोभयात्मना ।
वारितं दानमन्येन तन्मन्येन त्वनीश्वरम् ॥१५॥ भर्ना-प्रभुणा । व्यक्त:-प्रेक्षापूर्वकारी वा वृद्धो वाऽसारक्षो वा । आरक्षा मन्त्र्यादयः । सहारक्षर्वयंत इति सारक्षः स्वामी। न तथाभूतो यः सोऽसारक्षः स्वतन्त्र इत्यर्थः । अव्यक्तः-अप्रेक्षापूर्वकारी वा ६ बालो वा सारक्षो वा । उभयः–व्यक्ताव्यक्तरूपः । दानं-दीयमानमौदनादिकम् । तन्मन्येन-भर्तार
मात्मानं मन्यमानेन अमात्यादिना । तद्यथा-निषिद्धाख्यो दोषस्तावदीश्वरोऽनीश्वरश्चेति द्वेधा। तत्राप्याद्यस्त्रेधा । व्यक्तेश्वरेण वारितं दानं यदा साधु गृह्णाति तदा व्यक्तेश्वरो नाम दोषः । यदा अव्यक्तेन वारितं गृह्णाति तदाऽव्यक्तेश्वरो नाम । यदैकेन दानपतिना व्यक्तेन द्वितीयेन चाव्यक्तेन वारितं गृह्णाति तदा व्यक्ताव्यक्तेश्वरो नाम तृतीय ईश्वराख्यस्य निषिद्धभेदस्य भेदः स्यात् । एवमनीश्वरेऽपि व्याख्येयम् । यच्चैकेन दीयते
अन्येन च निषिद्धयते नेष्यते वा तदपि गह्यमाणं दोषाय स्याद् विरोधापायाद्यनुषङ्गाविशेषात् । यत्पुनः१२
'अणिसिटुं पुण दुविहं ईस्सर णिस्सर ह णिस्सरं व दुवियप्पं ।
पढमेस्सर सारक्खं वत्तावत्तं च संघाडं ॥' [ मूलाचार-गा. ४४४ ]
इत्यस्य टीकायां बहुधा व्याख्यान(-तं) तदत्रैव कुशलैः स्वबुद्धयाऽवतारयितुं शक्यत इति न सूत्र१५ विरोधः शङ्क्यः ॥१५॥
भेद-प्रभेद सहित निषिद्ध दोषको कहते हैं
व्यक्त, अव्यक्त और उभयरूप स्वामीके द्वारा मना की गयी वस्तु साधुको देना ईश्वर निषिद्ध नामक दोष है। और अपनेको स्वामी माननेवाले किसी अन्यके द्वारा मना की गयी वस्तुका दान देना अनीश्वर निषिद्ध नामक दोष है ॥१५॥
विशेषार्थ-मूलाचारमें उसकी संस्कृत टीकामें आचार्य वसुनन्दीने इस दोषका नाम अनीशार्थ दिया है। उसका व्याख्यान करते हुए उन्होंने लिखा है-इसके दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर । अनीश अर्थात् अप्रधान अर्थ जिस ओदन आदिका कारण है वह भात वगैरह अनीशार्थ है । उसके ग्रहण करने में जो दोष है उसका नाम भी अनीशार्थ है । कारणमें कार्यका उपचार है। वह अनीशार्थ ईश्वर और अनीश्वरके भेदसे दो प्रकारका है। उस दो प्रकारके भी चार प्रकार हैं। स्वामी दान देना चाहता है और सेवक रोकते हैं ऐसे अन्नको ग्रहण करनेसे ईश्वर नामक अनीशार्थ दोष होता है। उसके भी तीन भेद हैं-व्यक्त, अव्यक्त और व्यक्ताव्यक्त। जो अपना अधिकार स्वयं रखता है परकी अपेक्षा नहीं करता वह व्यक्त है । जो परकी अपेक्षा रखता है वह अव्यक्त है । ऐसे दो व्यक्तियोंको उभय कहते हैं। इसी तरह अनीश्वर दोषके भी तीन भेद होते हैं। दानका स्वामी दान देना चाहे और दूसरा रोके तो ईश्वर अनीशाथै दोष है और जो स्वामी नहीं है वह दे तो अनीश्वर अनीशार्थ दोष है। ऐसा प्रतीत होता है कि टीकाकार प्रकृत विषय में स्पष्ट नहीं थे। उन्होंने अथवा करके कई प्रकारसे भेदोंकी संगति बैठानेका प्रयत्न किया है। पहले दोषका नाम
१. निषिद्धत्वेनेष्यते भ. कु. च.। . २. इस्सरमह णिस्सरं च दुवि-मूलाचार । ३. 'अणिसट्ठं पुण दुविहं इस्सर मह णिस्सरं च दुवियप्पं ।
पढ़मिस्सर सारक्खं वत्तावत्तं च संघाई |-३१२५
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