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धर्मामृत ( अनगार) पाषण्डिभिहस्थैश्च सह दातुप्रकल्पितम् ।
यतिभ्यः प्रासुक-सिद्धमप्यन्नं मिश्रमिष्यते ॥१०॥ सिद्धं-निष्पन्नम् ॥१०॥ अथ कालवृद्धिहानिभ्यां वैविध्यमवलम्बमानं स्थूलं सूक्ष्मं च प्राभृतकं च सूचयति
यहिनादौ दिनांशे वा यत्र देयं स्थितं हि तत् ।
प्रारदीयमानं पश्चाद्वा ततः प्राभृतकं मतम् ॥११॥ दिनादौ-दिने पक्षे मासे वर्षे च। दिनांशे-पूर्वाह्लादौ । स्थितं-आगमे व्यवस्थितम् । हिनियमेन । प्रागित्यादि । तथाहि-यच्छुक्लाष्टम्यां देयमिति स्थितं तदपकृष्य शुक्लपञ्चम्यां यद्दीयते, यच्च चैत्रस्य सिते पक्षे देयमिति स्थितं तदपकृष्य कृष्णे यद्दीयते इत्यादि तत्सर्व कालहानिकृतं बादरं प्राभृतकम् । तथा यच्छुक्लपञ्चम्यां देयमिति स्थितं तदुत्कृष्य शुक्लाष्टम्यां यद्दीयते, यच्च चैत्रस्य कृष्ण पक्षे देयमिति स्थितं तदुत्कृष्य शुक्ले यद्दीयते इत्यादि, तत्सर्व कालवृद्धिकृतं बादरं प्राभतकम् । तथा यद मध्याह्न देयमिति स्थितं
पाषण्डी और गृहस्थोंके साथ यतियोंको भी यह भोजन मिश्र दोषसे युक्त माना जाता है ॥१०॥
विशेषार्थ-पिण्डनियुक्ति (गा. २७१ आदि ) में मिश्रके तीन भेद किये हैं-जितने भी गृहस्थ या अगृहस्थ भिक्षाके लिए आयेंगे उनके लिए भी पर्याप्त होगा और कुटुम्बके लिए भी, इस प्रकारकी बुद्धिसे सामान्य-से भिक्षुओंके योग्य और कुटुम्बके योग्य अन्नको एकत्र मिलाकर जो पकाया जाता है वह यावदर्थिक मिश्रजात है। जो केवल पाखण्डियोंके योग्य और अपने योग्य अन्न एकत्र पकाया जाता है वह पाखण्डिमिश्र है। जो केवल साधुओंके योग्य और अपने योग्य अन्न एकत्र पकाया जाता है वह साधुमिश्र है ॥१०॥
कालकी हानि और वृद्धिकी अपेक्षा प्राभूत दोषके दो भेद होते हैं-स्थूल और सूक्ष्म । इन दोनोंका स्वरूप कहते हैं
आगममें जो वस्तु जिस दिन, पक्ष, मास या वर्षमें अथवा दिनके जिस अंश पूर्वाह्नमें या अपराह्नमें देने योग्य कही है उससे पहले या पीछे देनेपर प्राभृतक दोष माना है ।।११।।
विशेषार्थ-इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जो वस्तु शुक्लपक्षकी अष्टमीको देय कही है उसको शुक्लपक्षकी पंचमीको देना, जो वस्तु चैत्रमासके शुक्लपक्षमें देय कही है उसे उससे पहले कृष्णपक्षमें देना, इत्यादि । इस प्रकार कालकी हानि करके देना बादर प्राभृतक दोष है । जो शुक्लपक्षकी पंचमीमें देय कही है उसे बढ़ाकर शुक्लपक्षकी अष्टमीको देना तथा जो चैत्रके कृष्णपक्षमें देय है उसे बढ़ाकर शुक्लपक्षमें देना इत्यादि। इस प्रकार कालकी वृद्धि करके देना बादर प्राभृतक दोष है । तथा जो मध्याह्न में देय है उसे उससे पहले पूर्वाह्नमें देना, जो अपराह्न में देय है उसे मध्याह्नमें देना इत्यादि । ये सब कालको घटाकर देनेसे सूक्ष्म प्राभृतक दोष हैं । तथा जो पूर्वाह्न में देय है उसे कालको बढ़ाकर मध्याह्नमें देना, यह कालवृद्धिकृत सूक्ष्म प्राभृतक दोष है । मूलाचारमें कहा है१. 'पाहुडिहं पुण दुविहं बादर सुहुमं च दुविह मेक्केकं ।
ओकस्सणमुक्कस्सण महकालोवट्टणा वड्ढी ॥ दिवसे पक्खे मासे वास परत्तीय बादरं दुविहं। पुवपरमज्झवेलं परियत्तं दुविह सुहमं च ॥-मूलाचार, पिण्ड. १३-१४ गा.
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