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________________ पंचम अध्याय अथोद्गमोत्पादनानामन्वर्थतां कथयति भक्ताद्युद्गच्छत्यपथ्यैयर्यैरुत्पाद्यते च ते। दातयत्योः क्रियाभेदा उद्गमोत्पादनाः क्रमात् ॥४॥ उद्गच्छति-उत्पद्यते, अपथ्यैः-मार्गविरोधिभिः दोषत्वं वैषामधःकर्माशसंभवात् ॥४॥ अथोद्गमभेदानामुद्देशानुवादपुरःसरं दोषत्वं समर्थयितुं श्लोकद्वयमाह उद्दिष्टं साधिकं पूति मिश्रं प्राभूतकं बलिः। न्यस्तं प्रादुष्कृतं क्रीतं प्रामित्यं परिवर्तितम् ॥५॥ निषिद्धाभिहतोद्भिन्नाच्छेद्यारोहास्तथोद्गमाः। दोषा हिंसानादरान्यस्पर्शदैन्यादियोगतः ॥६॥ प्रादुष्कृतं-प्रादुष्कराख्यम् ॥५॥ अन्यस्पर्श:-पावस्थपाषण्डादिबप्तिः (-दिक्षप्तम)। दैन्यादिःआदिशब्दात् विरोधकारुण्याकीादि ॥६॥ अथौद्देशिक सामान्यविशेषाभ्यां निदिशति १२ · तदौद्देशिकमन्नं यद्देवतादीनलिङ्गिनः । सर्वपाषण्डपाश्वस्थसाधून वोद्दिश्य साधितम् ॥७॥ मूलाचारमें कहा है-पृथिवीकायिक, जलकायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवोंकी विराधना अर्थात् दुःख देना और मारनेसे निष्पन्न हुआ आहारादि अधाकर्म है। वह स्वकृत हो, या परकारित हो या अनुमत हो। ऐसा भोजनादि यदि अपने लिए प्राप्त हो तो साधुको दूरसे ही त्यागना चाहिए ॥३॥ आगे उद्गम और उत्पादन शब्दोंको अन्वर्थ बतलाते हैं दाताकी जिन मार्गविरुद्ध क्रियाओंके द्वारा आहारादि उत्पन्न होता है उन क्रियाओंको क्रमसे उद्गम कहते हैं। और साधुकी जिन मार्गविरुद्ध क्रियाओंके द्वारा आहार आदि उत्पन्न किया जाता है उन क्रियाओंको उत्पादन कहते हैं ॥४॥ विशेषार्थ-दाता गृहस्थ पात्र यतिके लिए आहार आदि बनाता है। उसके बनाने में गृहस्थकी मार्ग विरुद्ध क्रियाओंको उद्गम दोष कहते हैं और साधुकी मार्गविरुद्ध क्रियाओंको उत्पादन दोष कहते हैं। जो बनाता है और जिसके लिए बनाता है इन दोनोंकी मागेविरुद्ध क्रियाएँ क्रमसे उद्गम और उत्पादन कही जाती हैं ॥४॥ ___ आगे उद्गमके भेदोंके नामोंका कथन करनेके साथ उनमें दोषपनका समर्थन दो श्लोकोंसे करते हैं उद्दिष्ट अर्थात् औद्देशिक, साधिक, पूति, मिश्र, प्राभृतक, बलि, न्यस्त, प्रादुष्कृत या प्रादुष्कर, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, निषिद्ध, अभिहृत, उद्भिन्न, अच्छेद्य और आरोह ये सोलह उद्गगम दोष हैं। इनमें हिंसा, अनादर, अन्यका स्पर्श, दीनता आदिका सम्बन्ध पाया जाता है इसलिए इनको दोष कहते हैं ॥५-६॥ आगे सबसे पहले औदेशिकका सामान्य और विशेष रूपसे कथन करते हैं जो भोजन नाग-यक्ष आदि देवता, दीनजनों और जैन दर्शनसे बहिभूत लिंगके धारी साधुओंके उद्देशसे अथवा सभी प्रकारके पाखण्ड, पाश्र्वस्थ, निर्ग्रन्थ आदिके उद्देशसे बनाया गया हो वह औद्देशिक है ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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