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पंचम अध्याय
अथवं सम्यक्चारित्राराधनां व्याख्यायेदानीं विघ्नाङ्गारादीत्याोषणासमितिसूत्राङ्गभूताम्
'उद्गमोत्पादनाहारः संयोगः सप्रमाणकः ।
अङ्गारभूमौ हेतुश्च पिण्डशुद्धिर्मताष्टधा ॥ [ ] इत्यष्टप्रकारां पिण्डशुद्धिमभिधातुकामः प्रथमं तावत् पिण्डस्य संक्षेपतो विधिनिषेधमुखेनायोग्यत्वे ( न योग्यायोग्यत्वे ) निर्दिशति
षट्चत्वारिंशता दोषैः पिण्डोऽधःकर्मणा मलैः।
द्विसप्तैश्चोज्झितोऽविघ्नं योज्यस्त्याज्यस्तथार्थतः ॥१॥ द्विसप्तैः-चतुर्दशभिः । द्विः सप्तेति विगृह्य 'संख्यावाड्डो बहुगणात्' इति डः । अविघ्नं-विघ्नानामन्तरायाणामभावे सत्यभावेन वा हेतुना । अर्थतः-निमित्तं प्रयोजनं चाश्रित्य ॥१॥
__ इस प्रकार चतुर्थ अध्यायमें सम्यकचारित्राराधनाका कथन करके एषणा समितिकी अंगभूत आठ प्रकारको पिण्ड शुद्धिको कहना चाहते हैं। वे आठ पिण्डशुद्धियाँ इस प्रकार हैं
'उद्गम शुद्धि, उत्पादन शुद्धि, आहार शुद्धि, संयोग शुद्धि, प्रमाण शुद्धि, अंगार शुद्धि, धूम शुद्धि और हेतु शुद्धि ।
किन्तु इनके कथनसे पूर्व संक्षेपसे पिण्डकी योग्यता और अयोग्यताका विधिमुख और निषेधमुखसे निर्देश करते हैं
निमित्त और प्रयोजनके आश्रयसे छियालीस दोषोंसे, अधःकर्मसे और चौदह मलोंसे रहित आहार अन्तरायोंको टालकर ग्रहण करना चाहिए तथा यदि ऐसा न हो तो उसे छोड़ देना चाहिए ॥१॥ विशेषार्थ-पिण्डका अर्थ आहार है । जो आहार छियालीस दोषोंसे अधःकर्मसे
मलोंसे रहित होता है वह साधुओंके ग्रहण करने के योग्य होता है। साधु ऐसे निर्दोष आहारको भोजनके अन्तरायोंको टालकर ही स्वीकार करते हैं। उनमें सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दस शंकित आदि दोष, चार अंगार, धूम, संयोजन और प्रमाण दोष ये सब छियालीस दोष हैं। अधःकर्मका लक्षण आगे कहेंगे। चौदह मल हैं। यदि इनमेंसे कोई दोष हो तो साधु उस आहारको ग्रहण नहीं करते। जो नियम आहारके विषयमें है वही औषध आदिके भी सम्बन्धमें जानना चाहिए ॥१॥
और चौदह मलोंसे रहित
१. "पिंडे उग्गम उप्पायणेसणा संजोयणा पमाणं च । इंगालधूमकारण अट्टविहा पिंड निजुत्ती' ॥११॥-पिण्ड नियुक्ति । मूलाचार ६।२ ।
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