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धर्मामृत (अनगार) तपस्यन् यं विनात्मानमुद्वेष्टयति वेष्टयन् ।
मन्थं नेत्रमिवाराध्यो धीरैः सिद्धचै स संयमः ॥१८०॥ तपस्यन्-आतापनादिकायक्लेशलक्षणं तपः कुर्वन् । यं विना-हिंसादिषु विषयेषु च प्रवृत्त्यर्थः । उद्वेष्टयति । वेष्टयन्-बन्धसहभाविनीं निर्जरा करोतीत्यर्थः । संयमः निश्चयेन रत्नत्रययोगपद्यकप्रवृत्तकाग्र्यलक्षणो व्यवहारेण तु प्राणिरक्षणेन्द्रिययन्त्रणलक्षणः ॥१८॥
अथ तपस्यतोऽपि संयम विनाऽपगतात्कर्मणो बहुतरस्योपादानं स्यादिति प्रदर्शयन संयमाराधनां प्रति सुतरां साधूनुद्यमयितुं तत्फलं पूजातिशयसमग्रं त्रिजगदनुग्राहकत्वं तेषामुपदिशति
कुर्वन् येन विना तपोऽपि रजसा भूयो हताद्भूयसा
स्नानोत्तीर्ण इव द्विपः स्वमपधीरुधूलयत्युधुरः। यस्तं संयममिष्टदैवतमिवोपास्ते निरीहः सदा
कि कुर्वाणमरुद्गणः स जगतामेकं भवेन्मङ्गलम् ॥१८१॥ रजसा-पापकर्मणा रेणुना च । हृताद्-अपनीताद् द्रव्यकर्मणो रेणोश्च । भूयसा-बहुतरेण । उद्धरः-मदोद्रिक्तः । उक्तं च
'सम्माइट्ठिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होइ ।
होदि खु हत्थिण्हाणं धुंद छुदगं वतं तस्स ॥' [ भ. आ. ७ गा.] जैसे मथानीकी रस्सी मथानीको बाँधती भी है और खोलती भी है उसी प्रकार संयमके बिना अर्थात् हिंसादिमें और विषयोंमें प्रवृत्तिके साथ कायक्लेशरूप तपको करनेवाला जीव भी बन्धके साथ. निर्जरा करता है। इसलिए धीर पुरुषोंको उस संयमकी आराधना करनी चाहिए ॥१८०॥
विशेषार्थ-निश्चयसे रत्नत्रयमें एक साथ प्रवृत्त एकाग्रताको संयम कहते हैं और व्यवहार में प्राणियोंकी रक्षा और इन्द्रियोंके नियन्त्रणको संयम कहते हैं। दोनों संयम होनेसे ही संयम होता है। अतः व्यवहार संयमपूर्वक निश्चय संयमकी आराधना करनी चाहिए तभी तपस्या भी फलदायक होती है ॥८०॥
__ संयमके विना तप करनेपर भी जितने कर्मोंकी निर्जरा होती है उससे अधिक कर्मोंका संचय होता है, इस बातको दिखाते हुए साधुओंको स्वयं संयमकी आराधनामें तत्पर करने के लिए संयमका फल बतलाते है
जिस संयमके बिना तपश्चरण भी करनेवाला मदमत्त दुर्बुद्धि पुरुष स्नान करके निकले हुए हाथीकी तरह निर्जीण कोसे भी अधिक बहुतसे नवीन पाप कर्मोंसे अपनेको लिप्त कर लेता है, उस संयमकी जो सदा लाभादिकी अपेक्षा न रखकर इष्टदेवताकी तरह उपासना करता है वह संसारके प्राणियोंके लिए उत्कृष्ट मंगलरूप होता है अर्थात् उसके निमित्तसे संसारके प्राणियोंके पापोंका क्षय और पुण्यका संचय होता है। तथा इन्द्रादि देवता उसकी सेवामें उपस्थित रहते हैं ॥१८॥
विशेषार्थ-जैसे हाथी सरोवरमें स्नान करके बाहर निकलनेपर जलसे जितनी धूल दूर हो जाती है उससे भी अधिक धूल अपने ऊपर डाल लेता है, उसी तरह असंयमी मनुष्य
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