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________________ चतुर्थ अध्याय ३६७ 'विधिवत' इत्यत्रापि योज्यम् । विधिर्यथा-श्रमणो भवितुमिच्छन् प्रथमं तावद् यथाजातरूपधरत्वस्य गमकं बहिरङ्गमन्तरङ्गं च लिङ्गं प्रथममेव गुरुणा परमेश्वरेणार्हद्भट्टारकेण तदात्वे च दीक्षकाचार्येण तदादानविधानप्रतिपादकत्वेन व्यवहारतो दीयमानत्वाद्दत्तमादानक्रियया संभाव्य तन्मयो भवति । ततो ३ भाव्यभावकभावप्रवृत्तेतरेतरसंवलनप्रत्यस्तमितस्वपरविभागत्वेन दत्तसर्वस्वमलोत्तरपरमगुरुन्नमस्क्रियया संभाव्य भावस्तववन्दनामयो भवति । ततः सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानलक्षणकमहाव्रतश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन समये भगवन्तमात्मानं जानन सामयिकमध्यारोहति । ततः प्रतिक्रमणालोचनप्रत्याख्यानलक्षणक्रियाश्रवणात्मना - ६ श्रुतज्ञानेन समये भगवन्तमात्मानं जानन् सामायिकमध्यारोहति । ततः कालिकधर्मेभ्यो विविच्यमानमात्मानं जानन्नतीतप्रत्युत्पन्नानुपस्थितकायवाङ्मनःकर्मविविक्तत्वमधिरोहति । ततः सर्वसावद्यकर्मायतनं कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं स्वरूपमैकाग्रयेणालम्व्यव्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति । उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वात् साक्षाच्छमणो भवति । छेदैः-निविकल्पसामायिकसंयमविकल्पैः। व्रतादिभि:--पञ्चभिर्महाव्रतैस्तत्परिकरभूतैश्च त्रयोविंशत्या समित्यादिभिमूल गुणैः । उपस्थाप्य-निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्तेषु प्रमादितमात्मानमारोप्य । अन्यत्-छेदोपस्थापनाख्यं चारित्रम् । अन्वेति-सामायिकादवतीर्णोऽनुवर्तते । केवलकल्याणमात्राथिनः कुण्डलवलयाङगुलीयादिपरिग्रहः किल श्रेयान्न पुनः सर्वथा कल्याणाभाव एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवतीत्यर्थः।। तथा चोक्तं प्रवनसारचूलिकायाम श्वेताम्बरीय विशेषावश्यक भाष्यमें कहा है-आत्मा ही सामायिक है क्योंकि सामायिक रूपसे आत्मा ही परिणत होता है । वही आत्मा सावद्ययोगका प्रत्याख्यान करता हुआ प्रत्याख्यान क्रियाके काल में सामायिक होता है। उस सामायिकका विषय सभी द्रव्य हैं क्योंकि प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रियाके द्वारा सभी द्रव्योंका उपयोग होता है। जैसे हिंसा निवृत्तिरूप व्रतमें सभी त्रस और स्थावर जीव उसके विषय हैं क्योंकि उसमें सभीकी रक्षा की जाती है। इसी तरह असत्यनिवृत्तिरूप व्रतमें विषय सभी द्रव्य हैं क्योंकि सभी द्रव्योंके सम्बन्धमें असत्य न बोलना चाहिए इत्यादि । सामायिक संयममें आरूढ़ हुआ आत्मा प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यानके द्वारा मन, वचन, काय सम्बन्धी अतीत, वर्तमान और अनागत कर्मोंसे भिन्न आत्माको जानता है क्योंकि अतीत दोषोंकी निवृत्तिके लिए प्रतिक्रमण, वर्तमान दोषोंकी निवृत्ति के लिए आलोचना और अनागत दोषोंकी निवृत्ति के लिए प्रत्याख्यान किया जाता है । पश्चात् समस्त सावंद्य कार्योंका स्थान जो अपना शरीर है उससे ममत्वको त्यागकर यथाजात रूप एकमात्र स्वरूपको एकाग्रतासे अवलम्बन करके सर्वत्र समदृष्टि होनेसे श्रमण हो जाता है । निर्विकल्प सामायिक संयमके भेद ही पाँच महाव्रत तथा उनके परिकररूप समिति आदि तेईस मल गुण है। इन विकल्पों में अभ्यस्त न होनेसे यदि उनमें प्रमादवश दोष लगाता है तो छेदोपस्थापनारूप चारित्रवाला होता है। इसका आशय यह है कि स्वर्णक इच्छुक व्यक्ति स्वर्ण सामान्यको यदि कुण्डल या कटक या अँगूठी आदि किसी भी रूपमें पाता है तो उसे स्वीकार कर लेता है उन्हें छोड़ नहीं देता। इसी तरह निर्विकल्प सामायिक संयममें स्थिर न रहनेपर निर्विकल्प सामायिक संयमके जो छेद अर्थात् भेद हैं उनमें स्थित होकर १. ज्ञानेन त्रैकालिक-भ. कु. च. । २. 'आया खलु सामाइयं पच्वक्खायं तओ हबइ आया । तं खलु पच्चक्खाणं आयाए सबदव्वाणं' ॥-वि. भा. २६३४ गा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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