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आकीर्णे - जनसंकुलस्थाने । एते कायोत्सर्गस्वभावाया: कायगुप्तेरतिचाराः । जन्तु इत्यादि । ६ प्रमादेन - अयत्नाचरणेन । एष हिंसादित्यागलक्षणायाः कायगुप्तेरतिचारः । सापध्यानं -- देहेन हस्तादिना वा परीषहाद्यपनयनचिन्तनमत्रापध्यानम् । तेन सहितं यथा भवति । अंङ्गवृत्त्युपरतिः - शरीरव्यापारनिवृत्तिः । अयमचेष्टारूपायाः कायगुप्तेरतिचारः ॥१६१॥
अथ चेष्टितुकामो मुनिः समितिपरः स्यादित्यनुशास्ति -
धर्मामृत (अनगार )
कायोत्सगंमलाः शरीरममतावृत्तिः शिवादीन्यथा.
भक्तुं तत्प्रतिमोन्मुखं स्थितिरथाकीर्णेऽङ्घ्रिणैकेन सा । जन्तुस्त्रीप्रतिमापरस्वबहुले देशे प्रमादेन वा,
सापध्यानमुताङ्गवृत्त्युपरतिः स्युः कायगुप्तेर्मलाः ॥१६१ ॥
शिवपदेया बहिष्कृतो व्यवहृतिप्रतीहार्या । भूयस्तद्भक्त्यवसरपरः श्रयेत्तत्सखीः शमी समितीः ॥ १६२ ॥
कायोत्सर्गसम्बन्धी बत्तीस दोष, यह शरीर मेरा है इस प्रकारकी प्रवृत्ति, शिव आदि की प्रतिमा के सम्मुख शिव आदिकी आराधना करने जैसी मुद्रामें खड़े होना अर्थात् दोनों हाथों को जोड़कर शिव आदिकी प्रतिमा के अभिमुख खड़ा होना, अथवा जनसमूहसे भरे स्थान में एक पैर से खड़े होना, ये सब कायोत्सर्गरूप कायगुप्तिके अतीचार हैं। तथा जहाँ जीव जन्तु, काष्ठ पाषाण आदिसे निर्मित स्त्रीप्रतिमाएँ और परधन प्रचुर मात्रा में हों, ऐसे देश में अयत्नाचार पूर्वक निवास हिंसादित्यागरूप कायगुप्तिका अतीचार है । अथवा अपध्यान सहित शरीर के व्यापारकी निवृत्ति अचेष्टारूप कायगुप्तिका अतीचार है || १६१ || विशेषार्थ - कायगुप्ति के तीन लक्षण कहे हैं, कायोत्सर्ग, हिंसादिका त्याग और अचेष्टा । इन तीनोंको ही दृष्टिमें रखकर अतीचार कहे हैं। आगे आठवें अध्यायमें आवश्यकोंका वर्णन करते 'हुए कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष कहेंगे । वे सब कायोत्सर्गरूप काय गुप्तिके अतीचार हैं इसी तरह शिव आदिकी प्रतिमाके सामने वन्दना मुद्रा में खड़े होना भी अतीचार है । इससे दर्शकों को यह भ्रम होता है कि यह शिवकी भक्ति करता है । इसी तरह जनसमूह के बीच में एक पैर से खड़े होकर कायोत्सर्ग करना भी सदोष है । हिंसा, चोरी और मैथुनके त्यागीको ऐसे स्थान में नहीं रहना चाहिए जहाँ जीव-जन्तुओंकी बहुतायत हो या स्त्रियोंकी प्रतिमाएँ
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या असुरक्षित परधन हो । रहना ही पड़े तो सावधान होकर रहना चाहिए । असावधानता में व्रतसे च्युत होनेका भय है । निश्चेष्ट होकर शरीर अथवा हाथ आदि द्वारा परीषह आदि दूर करनेका चिन्तन करना अचेष्टारूप कायगुप्तिका अतीचार है । निश्चेष्ट शुभ ध्यानके लिए हुआ जाता है। ऐसे समय में यदि परीषह आ जाय तो शरीर के द्वारा उसको दूर करनेका चिन्तन भी दोष ही है ॥ १६९॥
इस प्रकार गुप्तिप्रकरण समाप्त होता है ।
आगे जो मुनि शरीरसे चेष्टा करना चाहता है उसे समितियोंके पालनमें तत्पर होना चाहिए, ऐसा उपदेश देते हैं
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चेष्टारूपी प्रतिहारीके द्वारा मोक्षमार्गकी देवी गुप्तिसे बहिष्कृत किया गया जो मुनि पुनः गुप्तिकी आराधनाका अवसर प्राप्त करना चाहता है उसे गुप्तिकी सखी समितिका आश्रय लेना चाहिए || १६२ ||
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