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________________ ३४८ धर्मामृत ( अनगार) अथ परमार्थत्रिगुप्तमनूद्य तस्यैव परमसंवरनिर्जरे भवत इत्युपदिशति लुप्तयोगस्त्रिगुप्तोऽर्थात्तस्यैवापूर्वमण्वपि । कर्मास्त्रवति नोपात्तं निष्फलं गलति स्वयम् ॥१५७॥ गुप्तयोगः-निरुद्धकायमनोवाग्व्यापारः ॥१५७॥ . अथ सिद्धयोगमहिमानमाश्चर्यं भावयति__ अहो योगस्य माहात्म्यं यस्मिन् सिद्धेऽस्ततत्पथः। पापान्मुक्तः पुमाल्लब्धस्वात्मा नित्यं प्रमोदते ॥१८॥ योगस्य-ध्यानस्य । सिद्धे-अप्रमत्तसंयतप्रथमसमयादारभ्यायोगप्रथमसमये व्युपरतक्रियानिवृत्तिम लक्षणचतुर्थशुक्लध्यानरूपतया निष्पन्ने । अस्ततत्पथ:-निराकृतपापमार्गः परमसंवत इत्यर्थः । लब्धस्वात्मामुक्तः सन् ॥१५८॥ शरीरसे परिग्रहका ग्रहण इत्यादि विशिष्ट क्रियाएँ काय शब्दसे ली गयी हैं। उनसे व्यावृत्तिको कायगुप्ति कहते हैं । गुप्तिके उक्त लक्षणोंमें निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियोंका संग्रह जानना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्दने अपने नियमसारमें दोनों दृष्टियोंसे पृथक् पृथक स्वरूप कहा है। यथा-कालु ष्य, मोह, संज्ञा, राग-द्वेष आदि अशुभ भावोंका परिहार व्यवहार नयसे मनोगप्ति है। पापके हेतु स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा और भोजनकथा न करनेको तथा अलीक आदि वचनोंसे निवृत्ति वचनगुप्ति है। बाँधना, छेदन, मारण, हाथ-पैरका संकोच-विस्तार आदि कायक्रियाकी निवृत्ति व्यवहार कायगुप्ति है। निश्चयनयसे मनकी रागादिसे निवृत्ति मनोगुप्ति है, मौन वचनगुप्ति है, कायक्रिया निवृत्ति या कायोत्सर्ग कायगुप्ति है । (नियमसार गा. ६६-७०) ॥१५६।। इस प्रकार परमार्थसे त्रिगुप्तियुक्तका स्वरूप बताकर उसीके परम संवर और निर्जरा होती है ऐसा उपदेश करते हैं जिसका मन-वचन-कायका व्यापार रुक गया है वही परमार्थसे तीन गुप्तियोंसे युक्त है। उसीके एक परमाणु मात्र भी नवीन कर्मका आस्रव नहीं होता और पहले बँधा हुआ कर्म अपना फल दिये बिना स्वयं छूट जाता है ॥१५७॥ सिद्ध हुए ध्यानके आश्चर्यजनक माहात्म्यको कहते हैं___ योग अर्थात् ध्यानका माहात्म्य आश्चर्यजनक है जिसके सिद्ध होनेपर आत्मा पापकर्मके आनेके मार्गको सर्वथा बन्द करके और पूर्वबद्ध पापकोंसे मुक्त होकर अपने स्वरूपको प्राप्त करके सदा परम आनन्दका अनुभव करता है ।।१५८॥ विशेषार्थ- ध्यान ही मुक्तिका एक मात्र परमसाधन है। इसकी सिद्धिका आरम्भ अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थानके प्रथम समयसे होता है और पूर्ति अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानके प्रथम समयमें होनेवाले व्युपरत क्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यानके रूपमें होती है। उसी समय मन-वचन-कायका सब व्यापार रुक जानेसे परमार्थ त्रिगुप्ति होती है। वही अवस्था परमसंवर रूप है । उसीसे परम मुक्तिकी प्राप्ति होती है। क्योंकि संसारका अभाव होनेपर आत्माके स्वरूप लाभको मोक्ष कहते हैं। यहाँ 'पाप' शब्दसे सभी कर्म लेना चाहिए क्योंकि परमार्थसे कर्ममात्र संसारका कारण होनेसे पाप रूप है ॥१५८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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