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________________ चतुर्थ अध्याय ३४५ लोकपङ्क्ति-लोकपूजा । आदिशब्दाल्लाभख्याती। एतेन सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः इत्यनुसूचितं प्रतिपत्तव्यम् ।।१५४॥ अथ दृष्टान्तेन गुप्तिप्रयोगाय जागरयति 'प्राकारपरिखावप्रैः पुरवद् रत्नभासुरम् । पायादपायादात्मानं मनोवाक्कायगुप्तिभिः ॥१५५॥ वप्रः-धूलीप्राकारः । रत्नभासुरं-सम्यग्दर्शनादिभिः स्वस्वजात्युत्कृष्टैश्चाथैः साधुत्वेन भास- ६ मानम् ॥१५५॥ अथ मनोगुप्त्यादीनां विशेषलक्षणान्याह. 'रागादित्यागरूपामुत समयसमभ्याससद्धयानभूतां, चेतोगुप्ति दुरुक्तित्यजनतनुभवाग्लक्षणां वोक्तिगुप्तिम् । कायोत्सर्गस्वभावां विशररतचुरापोहदेहामनीहा कायां वा कायगुप्ति समदृगनुपतन्पाप्मना लिप्यते न ॥१५६।। समय:-आगमः । स त्रेधा शब्दसमयोऽर्थसमयो ज्ञानसमयश्चेति । सद्ध्यानं धयं शुक्लं च । तथा चोक्तम् उक्त लक्षणसे तत्त्वार्थसूत्रके 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः' इस लक्षणका ही सूचन होता है। इसमें योगका अर्थ है मन वचन कायका व्यापार। उसकी स्वेच्छाचारितार को रोकना निग्रह है। विषयसुखकी अभिलाषासे प्रवृत्ति निषेधके लिए 'सम्यक्' विशेषण दिया है। इस तरहसे काय आदि योगका निरोध करनेपर उसके निमित्तसे कर्मका आस्रव नहीं होता ॥१५४॥ आगे दृष्टान्तके द्वारा गुप्तियोंका पालन करनेके लिए साधुओंको सावधान करते हैं जैसे राजा रत्नोंसे अर्थात् अपनी-अपनी जातिके उत्कृष्ट पदार्थोंसे शोभायमान नगरकी प्राकार (अन्दरकी चारदीवारी), खाई और उसके बाहरकी कच्ची चारदीवारीसे रक्षा करते हैं उसी तरह व्रतीको सम्यग्दर्शन आदि रत्नोंसे शोभित अपनी आत्माकी रत्नत्रयको नष्ट करनेवाले अपायोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगाप्तकद्वारा रक्षा करना चाहिए ।।१५५।। आगे मनोगुप्ति आदिका विशेष लक्षण कहते हैं राग, द्वेष और मोहके त्याग रूप अथवा आगमका विनयपूर्वक अभ्यास और धर्म्य तथा शुक्लध्यानरूप मनोगुप्ति है । कठोर आदि वचनोंका त्याग वचनगुप्तिका शरीर है अथवा मौनरूप वचनगुप्ति है । शरीरसे ममत्वका त्याग रूप स्वभाववाली अथवा हिंसा, मैथुन और चोरीसे निवृत्तिरूप स्वभाववाली, अथवा सर्व चेष्टाओंसे निवृत्ति रूप वाली कायगुप्ति है। समस्त हेय उपादेयको तत्त्व रूपसे देखकर जीवन मरण आदिमें समबुद्धि रखनेवाला साधु इन गुप्तियोंका पालन करते हुए ज्ञानावरण आदि कर्मोंसे लिप्त नहीं होता ।।१५६।। विशेषाथ-भगवती आराधनामें गुप्तियोंका स्वरूप कहा है-- १. छेत्तस्स वदी णयरस्स खाइया अइव होइ पायारो। तह पावस्स गिरोहो ताओ गुत्तीओ साहुस्स ॥११८९।-भ. आरा.। २. जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगत्ति । अलियादि णियत्ती वा मोणं वा होइ वचिगुत्ति । कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ति । हिंसादिणियत्ती वा सरीरगत्ति हवदि दिट्टा ॥-भ. आ. ११८७-८८ मि. । ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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