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________________ ३३८ धर्मामृत (अनगार) अपि च 'यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरास्रवः ॥' [आत्मानु. २४६ ।] ॥१५०॥ पूर्वक किसी एकमें प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक मुनि होता है। श्रुतसागरी टीकामें इसे स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे यह शंका की गयी है कि पुलाक मुनि रात्रिभोजन त्याग व्रतकी विराधना कैसे करता है ? तो उसके समाधानमें कहा गया है कि इससे श्रावक आदिका उपकार होगा इस भावनासे छात्र आदिको रात्रिमें भोजन करानेसे विराधना होती है । इससे भी यह स्पष्ट होता है कि मुनि नौ प्रकारसे रात्रिभोजनका त्यागी होता है। सर्वार्थसिद्धिपर आचार्य प्रभाचन्द्रका जो टिप्पण है उसमें यही अर्थ किया है। उसीका अनुसरण श्रुतसागरीमें किया है। अस्तु, - आचार्य कुन्दकुन्दने धर्मका स्वरूप इस प्रकार कहाँ है—'निश्चयसे चारित्र धर्म है। वही साम्य है । मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम साम्य है।' ___ इसकी व्याख्यामें आचार्य अमृतचन्द्रने स्वरूपमें चरणको अर्थात् स्वसमयप्रवृत्तिको चारित्र कहा है और उसीको वस्तु स्वभाव होनेसे धर्म कहा है। धर्म अर्थात् शुद्ध चैतन्यका प्रकाशन ! वही यथाव स्थित आत्मगुण होनेसे साम्य है। और साम्य दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके उदयसे उत्पन्न होनेवाले समस्त मोह और क्षोभके अभावसे उत्पन्न अत्यन्त निर्विकार ऐसा जीवका परिणाम है। इस तरह मोह और क्षोभसे रहित जीवपरिणामका नाम साम्य है। साम्य ही धर्म है और धर्म चारित्र है अर्थात् ये सब एकार्थवाची हैं। आचार्य समन्तभद्रने कहाँ है-'मोहरूपी अन्धकारके दूर होनेपर सम्यग्दर्शनके लाभके साथ ही सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करके साधु राग और द्वेषकी निवृत्तिके लिए चारित्रको धारण करता है।' वह चारित्र साम्यभावरूप सामायिक चारित्र ही है। उसीकी पुष्टि के लिए साधु पाँच महाव्रतोंको धारण करता है । नीचेकी भूमिका अर्थात् गृहस्थ धर्म में प्राणिरक्षा, सत्यभाषण, दी हुई वस्तुके ग्रहण, ब्रह्मचर्य और योग्य परिग्रहके स्वीकार में जो प्रवृत्ति होती है, ऊपरकी भमिकामें उसकी भी निवृत्ति हो जाती है। ऐसा होनेसे सर्घसावद्य योगकी निवृत्तिरूप सामायिक चारित्र परिपूर्ण होता हुआ सूक्ष्म साम्परायकी अन्तिम सीमाको प्राप्त करके यथाख्यात रूप हो जाता है। यद्यपि यथाख्यात चारित्र बारहवें गुणस्थानके प्रारम्भमें ही प्रकट हो जाता है तथापि उसकी पूर्णता चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें १. 'महाव्रतलक्षणपञ्चमूलगुणविभावरीभोजनवर्जनानां मध्येऽन्यतमं वलात् परोपरोधात् प्रतिसेवमानः पुलाको विराधको भवति । रात्रिभोजनवर्जनस्य विराधकः कथमिति चेत् ? उच्यते-श्रावकादीनामुपकारोऽनेन भविष्यतीति छात्रादिकं रात्री भोजयतीति विराधकः स्यात ।' २. 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णि ट्रिो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥-प्रवचनसार, गा.७। ३. मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादववाप्तसंज्ञानः। रागद्वेष निवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।-रत्नकर, श्रा., ४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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