________________
धर्मामृत ( अनगार) 'तेसिं चेव वयाणं रक्खत्थं रादिभोयणणियत्ती ।
अट्ठय पवयणमादाओ भावणाओ य सव्वाओ।' [ भ. आरा. ११८५ ] रात्रिभोजिनो हि मुनेहिसादीनां प्राप्तिः शंका चात्मविपत्तिश्च स्यात् । तदप्युक्तम्
'तेसिं पञ्चण्हं पियं वयाणमावज्जणं च संका वा।
आदविवत्तीअ हवेज्ज रादिभत्तप्पसंगम्मि ॥' [भ. आरा. ११८६] रात्री हि भिक्षार्थं पर्यटन प्राणिनो हिनस्ति दुरालोकत्वात् । दायकागमनमार्ग तस्यात्मनश्चावस्थानदेशमुच्छिष्टस्य निपातदेशमाहारं च योग्यमयोग्यं वा निरूपयितुं न शक्नोति कटच्छकादिकं वा शोधयितुम् । अतिसूक्ष्मत्रसानां दिवापि दुष्परिहारत्वात् । पदविभागिकामेषणासमित्यालोचनां सम्यगपरीक्षितविषयां कुर्वन कथमिव सत्यव्रती स्यात् । सुप्तेन स्वामिभूतेनादत्तमप्याहारं गृह्णतोऽस्यादत्तादानमपि स्यात् ? विद्विष्टा गोत्रिणो वैरिणो वा निःशंकिता रात्रौ मार्गादौ ब्रह्मचर्य तस्य नाशयन्ति । दिवानीतं वसतो निजभाजने धृतमाहारं रात्री
भुञ्जानः सपरिग्रहश्च भवेत् । तथा मम हिंसादयः संवृता न वेति शङ्का रात्रिभोजिनः स्यात् स्थाणुसर्पकण्टका१२
दिभिरुपघातश्च । प्राणि आदि-अधस्तनभूमिकायां प्राणिरक्षणे सत्यभाषणे दत्तग्रहणे ब्रह्मचरणे योग्यपरिग्रहस्वीकरणे च या प्रवृत्तिस्तस्या उपरम उपरिमभूमिकाया व्यावर्तनं तस्यानुरीत्यानुक्रमणेन पूर्णीभवन सम्पूर्णतां गच्छन् साम्यं सर्वसावद्ययोगविरतिमात्रलक्षणं सामायिकचारित्रं येषां ते तथाभूता भूत्वा । सकलीकूवंन्तिसामायिकशिखरारोहणेन सूक्ष्मसाम्परायकाष्ठामधिष्ठाय यथाख्यातरूपतां नयन्ति । निर्वान्ति ते-अयोग- चरमसमय एव चारित्रस्य
सय एव चारित्रस्य सम्पर्णीभावादयोगानामचारित्रस्य व्यापकत्वात ।
१५
'यतः असंयमके निमित्तसे आनेवाले नवीन कर्मसमूहको रोकने रूप महान् प्रयोजनको साधते हैं, महान् पुरुषोंके द्वारा पाले जाते हैं तथा स्वयं महान् होनेसे उन्हें महावत कहते हैं।' इन व्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रिभोजन विरति नामक छठा अणुव्रत भी कहा है। यथा'उन्ही अहिंसादि-त्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रिभोजननिवृत्ति नामक व्रत है। तथा पाँच समिति
और तीन गुप्तिरूप आठ प्रवचन माता हैं। जैसे माता पुत्रोंकी अपायसे रक्षा करती है वैसे ही पाँच समिति और तीन गुप्ति व्रतोंकी रक्षा करती हैं। तथा सभी भावनाएँ भी व्रतोंकी रक्षिका हैं।'
रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग रात्रिभोजननिवृत्ति है। उसे अणुव्रत कहा है क्योंकि जैसे हिंसा आदि पापोंका सर्वथा त्याग किया जाता है उस तरह भोजनका सर्वथा त्याग नहीं किया जाता। किन्तु केवल रात्रिमें ही भोजनका त्याग किया जाता है, दिनमें तो समयपर भोजन किया जाता है। इसलिए इसे अणुव्रत कहा है । विजयोदया टीकामें उक्त गाथाकी व्याख्या करते हुए कहा है-यदि मुनि रात्रिमें भिक्षाके लिए विचरण करता है तो त्रस जीवों और स्थावर जीवोंका घात करता है। रात्रिके समय वह दाताके आनेका मार्ग, उसके अन्न आदि रखनेका स्थान, अपने खड़े होनेका स्थान, उच्छिष्ट भोजनके गिरनेका स्थान अथवा दिया जानेवाला आहार योग्य है या नहीं, यह सब वह कैसे जान सकता है ? जो सूक्ष्म जीव दिनमें भी कठिनतासे देखे जा सकते हैं उन्हें रात्रिमें कैसे देखकर उनका बचाव कर सकता है। रात्रिमें आहार देनेके पात्र वगैरहका शोधन कैसे हो सकता है। सम्यक रीतिसे देखे बिना ही एषणा समितिकी आलोचना करनेपर साधुका सत्यव्रत कैसे रह सकता है । स्वामीके सोनेपर उसके द्वारा नहीं दिया गया आहार ग्रहण करनेसे चोरीका
१. य अंहयाण-भ. आ. .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org