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धर्मामृत ( अनगार) यश्चार्वचारविषयेषु निषिद्धय राग__ द्वेषौ निवृत्तिमधियन् मुहुरानिवात् । ईत निवर्त्य विरहादनिवृत्तिवृत्ति,
तद्धाम नौमि तमसङ्गमसङ्गसिंहम् ॥१४८।। अधियन्-ध्यायन् । आनिवात्-निवर्तनीयं बन्धं बन्धनिबन्धनं च यावत् । इर्ते-गच्छति । . अनिवृत्तिवृत्ति-निवृत्तिप्रवृत्तिरहितम् । तथा चावाचि
'निवृत्ति भावयेद्यावन्निवयं तदभावतः । न वृत्तिन निवृत्तिश्च तदेव पदमव्ययम् ॥ रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् ।
तौ च बाह्यार्थसम्बद्धौ तस्मात्तान् सुपरित्यजेत् ॥' [आत्मानु. २३६-२३७] असङ्ख-संततं निरुपलेपं च ॥१४८॥ अथ स्वस्वभावनासंपादितस्थैर्याणि व्रतानि साधूनां समीहितं साधयन्तीत्युपदेशार्थमाह
पञ्चभिः पञ्चभिः पञ्चाऽप्येतेऽहिंसादयो वताः।
भावनाभिः स्थिरीभूताः सतां सन्तीष्टसिद्धिदाः॥१४९॥ स्पष्टम् ॥१४९॥
जो पाँचों इन्द्रियोंके मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द विषयोंमें राग द्वेष न करके जबतक निवर्तनीय बन्ध और बन्धके कारण हैं तबतक बार-बा भावनाका ध्यान करते हुए, निवर्तनीय-हटाने योग्यका अभाव होनेसे निवृत्ति और प्रवृत्तिसे रहित उस स्थानको प्राप्त होता है उस निरुपलेप निर्ग्रन्थ श्रेष्ठको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१४८।।
विशेषार्थ-इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विषयोंसे द्वेषका त्याग किये बिना परिग्रहत्यागवत परिपूर्ण नहीं होता। अतः परिग्रहके त्यागीको उनका भी त्याग करना चाहिए । उसके साथ जिनसे उसे यथार्थमें निवृत्त होना है वह है बन्ध और बन्धके कारण । जबतक ये वर्तमान हैं तबतक उसे इनसे निवृत्त होने के लिए सदा जागरूक रहना होगा। जब ये नहीं रहेंगे तभी वह उस मुक्तिको प्राप्त करेगा, जहाँ न निवृत्ति है और न प्रवृत्ति है । कहा भी है-'जबतक छोड़नेके योग्य शरीरादि बाह्य वस्तुओंके प्रति ममत्व भाव है तबतक निवृत्तिकी भावना करनी चाहिए। और जब निवृत्त होनेके लिए कुछ रहे ही नहीं, तब न तो निवृत्ति रहती है और न प्रवृत्ति रहती है। वही अविनाशी मोक्षपद है। राग और द्वेषका नाम प्रवृत्ति है और उनके अभावका नाम निवृत्ति है। ये दोनों ही बाह्य पदार्थोंसे सम्बद्ध हैं इसलिए बाह्य पदार्थोंका पूरी तरहसे त्याग करना चाहिए । अर्थात् बाह्य पदार्थोंका त्याग मूल वस्तु नहीं है। मूल वस्तु है रागद्वेषका त्याग । किन्तु राग द्वेष बाह्य पदार्थोंको ही लेकर होते हैं इसलिए रागद्वेषके आलम्बन होनेसे बाह्य पदार्थोंको भी छोड़ना चाहिए।' इस प्रकार परिग्रह त्याग महाव्रतका कथन पूर्ण हुआ ॥१४८॥
आगे अपनी भावनाओंके द्वारा स्थिरताको प्राप्त हुए व्रत साधुओंके मनोरथोंको सिद्ध करते हैं, यह उपदेश देते हैं
__ ये पहले कहे गये हिंसाविरति, अनृतविरति, चौर्यविरति, अब्रह्मविरति और परिग्रहविरतिरूप पाँचों व्रत पाँच-पाँच भावनाओंके द्वारा निश्चलताको प्राप्त होनेपर साधुओंके इष्ट अर्थके साधक होते हैं । ये भावनाएँ प्रत्येक व्रतके साथ पहले बतला आये हैं ॥१४९।।
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