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धर्मामृत ( अनगार) भावैभाविकै परिणतिमयतोऽनादिसंतानवृत्त्या,
कर्मण्यैरेकलोलीभवत उपगतैः पुद्गलैस्तत्त्वतः स्वम् । बुद्ध्वा श्रद्धाय साम्यं निरुपधि दधतो मुत्सुधाब्धावगाधे,
__ स्याच्चेल्लीलावगाहस्तदयमघशिखी कि ज्वलेद्दाह्यशून्यः ॥१४६॥ वैभाविकैः-औपाधिकैः मोहरागद्वेषैरित्यर्थः । कर्मण्यैः-ज्ञानावरणादिकर्मयोग्यैः । निरुपधि६ निर्दम्भम् । दाह्यशून्यः-दायेन मोहाद्याविष्टचिद्विवर्तेन तृणकाष्ठादिना च रहितः ॥१४६॥ अथ समाधिमधिरुरुक्षोर्मुमुक्षोरन्तरात्मानुशिष्टिमुपदेष्टुभाचष्टे
अयमधिमदबाधो भात्यहं प्रत्ययो य___स्तमनु निरवबन्धं बद्धनिर्व्याजसख्यम् । पथि चरसि मनश्चेतहि तद्धाम हीर्षे,
भवदवविपदो दिङ्मूढमभ्येषि नो चेत् ॥१४॥
अनादि सन्तान परम्परासे सदा मेरे साथ सम्बद्ध ज्ञानावरण आदि कर्मोंके योग्य पुद्गलोंके साथ मेरा कथंचित् तादात्म्य जैसा सम्बन्ध हो रहा है। और उन्हींका निमित्त पाकर होनेवाले राग-द्वेषरूप वैभाविक भावोंसे मैं परिणमन करता रहा हूँ। अब यदि मैं यथार्थ रूपसे आत्माका श्रद्धान करके और उसका निश्चय करके तथा उपाधि रहित साम्य भावको धारण करके गहरे आनन्दरूपी अमृतके समुद्र में सरलतासे अवगाहन कर सकूँ तो क्या यह पापरूप अग्नि बिना इधनके जलती रह सकती है ।।१४६।।
विशेषार्थ-यह योगीकी यथार्थ भावना है। इस भावनामें अपनी अतीत स्थितिके चित्रणके साथ ही उसके प्रतीकारका उपाय भी है । जीव और कर्मों के सम्बन्धकी परम्परा अनादि है। पूर्वबद्ध कर्मके उदयका निमित्त पाकर जीव राग-द्वेषरूप परिणमन स्वतः करता है और जीवके राग-द्वेष रूप परिणामोंका निमित्त पाकर कार्मण वर्गणाएँ स्वयं ज्ञानावरणादिरूपसे परिणमन करती हैं। इससे छूटनेका उपाय है कर्मजन्य रागादि भावोंसे आत्माकी भिन्नताको जानकर आत्माके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान और ज्ञान तथा रागादि रूपसे परिणमन न करके राग और द्वेषकी निवृत्ति रूप साम्यभावको धारण करना। इसीके लिए चारित्र धारण किया जाता है । साम्यभावके आते ही आत्मामें आनन्दका सागर. हिलोरें लेने लगता है। उसमें डुबकी लगानेपर पापरूप अग्नि शान्त हो जाती है क्योंकि उसे रागद्वेषरूपी इंधन मिलना बन्द हो जाता है। यदि आगमें इंधन न डाला जाये तो वह स्वतः शान्त हो जाती है । यही स्थिति पापरूप अग्निकी भी है ।।१४६।।
____ समाधिपर आरोहण करनेवाले मुमुक्षुको अन्तरात्मामें ही उपयोग लगानेका उपदेश देते हैं
हे मन ! जो यह आत्माको लेकर बाधारहित 'मैं' इस प्रकारका ज्ञान प्रतिभासित होता है, उसके साथ छल-कपटसे रहित गाढ़ मैत्रीभाव रखकर यदि मार्गमें अस्खलित रूपसे चलोगे तो उस वचनके अगोचर और एकमात्र स्वसंवेदनके द्वारा अनुभव होने योग्य स्थानको प्राप्त करोगे। अन्यथा चलनेपर दिङ्मूढ़ होकर-गुरुके उपदेशमें मूढ़ बनकर संसाररूपी दावाग्निकी विपत्तियोंकी ओर जाओगे ॥१४॥
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